रविवार, 24 जनवरी 2016

ये दिन भी अपने थे - 69


आज दीवाली है ।फटाके फोड़ने की बात पर अपूर्व मेरा बेटा गुस्सा हो जाता है ।उसे तेज आवाज पसंद नहीं है ।धुयें से उसे तकलिफ होती है ।हर साल फटाके चलाता और दवाई खाता था ।अब नहीं फोड़ता है।

मुझे अनारदाना और जमीन चकरी बहुत पसंद है। अपूर्व मेरे लिये फटाके लाता है और मै शाम को ही चला कर दिये जलाती हूँ ।बचपन की यादें हर साल ताजा होती है ।काका को फटाके बिल्कुल पसंद नहीं थे असल मे वे फटाके से डरते थे ।

हम लोग जब छोटे थे तब गिने चुने फटाके मिलते थे ।आवाज वाले कम और रोशनी वाले ज्यादा रहते थे ।कार्बाइड होता था जिसे डायना माइट भी कहते थे, कोई उसे फुटने वाला पत्थर कहता था ।इसे पानी मे डुबा कर एक बड़े से डिब्बे मे डाल कर उपर से एक कागज जला कर डाल देते थे ।अब यह भड़ भड़ की आवाज के साथ इधर उधर घूमता था ।

काका इसे जलाते थे और हम दोनो भाई बहन के साथ माँ को वरामदे मे खड़े कर देते थे ।जाली वाला दरवाजा था हम लोग वहाँ से दखते थे काका पीपा मे जलाते थे ।काका उसमे आग लगा कर भागते अंदर आते थे ।अब तो पीपी अपने भ्रमण पर निकल पड़ता था ।पूरे बड़े से आंगन मे पूरब पश्चिम और उत्तर दक्षिण घूम कर ,थक हार कर एक जगह चुप बैठ जाता ।

इस बीच घर के दूसरे तरफ गाय का कोठा था वहाँ पर गाय भी उस पीपे के साथ घूमना और चिल्लाना करते रहती थी ।हर बार वही होता था ।इधर गाय घूम घूम कर थक जाती थी और काका डर और तनाव मे थक जाते थे ।हम लोग एक कदम भी आगे बढ़ाते तो हम लोगों को जोर से डांटते थे ।हम लोग वरामदे मे बंद और डांट खा कर थक जाते थे ।

सब थक कर खाना खाने बैठते थे तो माँ और काका का मुंह 180° पर रहता था ।बिना बोले सब सो जाते थे ।दूसरे दिन बस्ती के बच्चों को लौंगी फटाका फोड़ते देख कर भाई माँ के पास आकर लेने की जिद करता था ।पर काका के डर से कोई कुछ नहीं बोलता था भाई जब दस साल का हो गया तब काका ने गोंदली फटाका और लौगी खरीदा था ।लौगी को फोड़ने का तरिका भी अनोखा था । पहले कागज जलाते फिर उसमे एक फटाका डालते थे ।इसी प्रकार बैठ कर फोड़ते रहते थे ।भाई को जब गुस्सा आता तो पूरा फटाका डाल देता था फुलझड़ी ,महतोस काड़ी , और रस्सी भी धीरे से लाने लगे ।

मै तो जमीन चकरी और अनारदाना ही बचपन से चलाती रही ।बेटा हुआ तो मैने अपने पति को भी इसी तरह डरते देखा ।वे एक लकड़ी को बीच से फाड़ कर उसके बीच मे लौंगी लगा कर अपूर्व को बोलते थे इसे फोड़ ।छोटा था तब तक ठीक रहा बाद मे दोस्तों के साथ बहुत कुछ सीख गया ।

फटाकों की दुनिया में भी क्रांती आ गई ।आज कहां से कहाँ तक पहुंच गये ।लौगी तो है पर हजारों की संख्या वाले लड़ आ गये ।एक छोटा बच्चा भी उसे जला कर फटाका फोड़ने का मजा ले लेता है और हम लोग एक लौंगी को लकड़ी मे फंसा कर दूर फोड़ कर स्वर्गिक आनंद लेते थे । आज हजारों रुपये के फटाके से भी मन नहीं भरता है पहले पांच रुपये के फटाके से भी गौहव का अनुभव होता था ।आतिशबाजी तब भी थी पर कुछ तारे से आकाश मे दिखते थे ।उन तारों को घर के आंगन से देख कर खुश हो लिया करते थे ।

आज फटाके जलाने के बाद आकाश को जलाने वाला नहीं देखता है ।वह तो गिनता है कि कितने जला लिये और कितने डिब्बे खतम हो गये ।बड़े गौरव से कहा जाता है हमारे घर तो पांच हजार का फटाका आया था ।दस हजार का आया था वह भी कम पड़ गया ।

मेरे घर के बाजू मे मैने देखा कि वह व्यक्ति सांस भी नहीं लेता था एक के बाद एक लड़ी ,राकेट और आतिशबाजियां जलाते रहा ।पर वह आकाश की आ ओरससिर उठा कर नहीं देखा ।आकाश तो इस तरह की रोशनी से भरी थी कि कौन अपना और कौन दूसरे का समझ भी नहीं आ रहा था ।

जमाना जरूर बदल गया है ।त्योहारों का रंग भी बदल गया है ।खुशियां भी बदल गई है ।पैसे से सब तौला जाता है ।बचपन भी खोता जा रहा है ।हम उसे खुशियां देते नहीं खुश होने के लिये मंहगी चीजों के साथ छोड़ देतै हैअब वे स्वयं फटाके चला लेते है ।हमारी तरह संरक्षण की जरुरत ही नहीं है ।आज वह सुख नहीं है वह सुकुन नहीं है जो काका के संरक्षण मे था ।उस छोटे से एक रुपये का कारबाइड क्या क्या खुशियां दिया था वह आज याद आता है ।

बेटे अपूर्व को मै खुश होते देखती हूँ जब वह एक एक कर अनारदाना मेरे लिये चलाता है ।अपने लिये तो कभी ही चलाता है ।

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