रविवार, 24 जनवरी 2016

ये दिन भी अपने थे - 2


मेरे पिताजी बी एड कालेज मे प्रोफेसर थे ।साथ ही हास्टल वार्डन थे ।1969 में बैरन बाजार रायपुर के चायपत्ती बंगले मे रहने आ गये ।सात एकड़ ( शायद) का बंगला था।तरह तरह के पौधे लगे थे ।मेरे खेलने के लिये एक छोटा तालाब बनाया गया था ।रेत के पहाड़ बनाती थी और खूब से पौधे लगाती थी हर दीन नई सजावट ।मेरा छोटा भाई और मैं उसमें छोटी सी बोट चलाते थे ।
दोसौ शिक्षक आठ नौकर और इतना बड़ा बंगला सब मुझे जेल की तरह लगता था ।

मै बंगले के गेट पर चढ़ कर जोर जोर से चिल्लती थी "मुझे बाहर निकालो ,मुझे बाहर जाना है "

बंगले के सामने डाक्टर लाल और डाक्टर सिंग का बंगला था । वे लोग मुझे देखते थे ।दोनों घरो में लड़कियां थी ।उन्हे देखकर वापस माँ के पास आकर रोती थी कि मुझे उनके साथ खेलना है ।

एक दिन माँ ने मुझे नौकर कुंवरसिंग नेताम के साथ वहाँ भेज दिया ।डाक्टर लाल की बेटी ललिता लाल से मेंरी दोस्ती हो गई ।वह मुझसे बड़ी थी ।दूसरे दिन डाक्टर सिंग की बेटी प्रेमांजली दिप्ती से दोस्ती हो गई ।इन्हें मै नाम से नहीं ,दोस्तिन कहती थी ।

एक रविवार को सिंग अंकल को सब के साथ जाते देखकरसमैभी साथ जाने के लिये रोने लगी ।माँ ने साथ भेज दिया ।हम लोग बैरन बाजार के चर्च पहुँचे ।मै उनके साथ ही थी ।प्रेयर के बाद सब मेरा गाल छुकर मेरे बारे में पूछते थे ।आंटी परिचय देती थी ।हम लोग वापस आ गये ।मैआंटी के घर पर ही रही ।उनके साथ खाना खाई ।खाने में मटन था जिसके दर्शन मैने पहली बार किया था ।

बहुत देर तक कुंवर सिंग बैठा रहा ।जब घर पहुंचे तो मेरी पेशी हुई कि तुमने खाना क्यों खाया ।पिताजी सिर पकड़ कर बैठे थे ।

दूसरे रविवार कोभी मै उनके साथ गई ।यह सिलसिला बन गया ।अब मैं ईशु के बार मे जानने लगी ।ईशु का चेहरा मेरेआंखो के सामने आते रहता ।दोनों घरो में मेरा आना जाना बढ़ गया था ।नहीँ भेजने पर अपना रोने का हथियार उपयोग में लाती थी ।

मेरी दोस्ती के साथ परिवारों के बीच भी दोस्ती बढ़ रही थी ।पर मेरी माँ की चिंता भीबढ़ रही थी ।मेरे खाने पर उन्हें एतराज था ।

माँ मुझे दोनों घरों से खाना खा कर आने के बाद एक चम्मच गंगा जल पिलाया करती थी ।पिताजी को हम लोग काका कहते थे ।काका कहते थे सब एक इंसान हैं ,खाना खाली तो क्या हुआ।बच्चों के मन में भेद भाव मत डालो ।

माँ कहती थी ,मुझे भेजने में एतराज नहीं है ,पर खाने से एतराज है ।पता नहीं क्या क्या खाती है ।
इतने बड़े बगले में मेरा मन कभी नहीं लगा ।तितलियों के पीछे भागने वाली ,चिड़ियों को दाना डालने वाली लड़की को एक हम उम्र साथी की जरुरत थी । वह साथी घर के बाहर थे ।काका समझ रहे है पर माँ नहीं ।मेरी बेबसी ने माँ को यह जरु र सिखा दिया की दोस्ती में धर्म के लिये कोई जगह नहीं है ।मैं वहाँ खाती रही और माँ मुझे गंगाजल पिलाती रही ।

बाद में यह दोस्ती इतनी गहरी हो गई कि माँ ने भी उनके घर का केक खाना शुरुकर दिया ।सिंग आंटी ने बिना अंडे का केक बनाना बनाना शुरु कर दिया और मां को भी सिखा दिया ।ललिता लाल यहाँ की पहली इंजीनियर बनी और प्रेमाजली दिप्ती डाक्टर थो दो वर्ष पूर्व उसका निधन हो गया ।उसका भाई आज भी उस घर में रहता है ।मैं यादों को ताजा करने क्रिसमस के आसपास चली जाती हूँ ।चायपत्ती बंगले को सरकार ने बेच दिया है ।डाक्टर फरिस्ता वहाँ रहते है ।बाकी खाली जगह की प्लाटिंग करके बेच दिया गया है ।

पर यादोंको कोई बेच नही सकता है।मुझे आज भी वह उसी तरह दिखाई देता है जैसा1959-62 तक था ।

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