रविवार, 24 जनवरी 2016

ये दिन भी अपने थे - 46


मेरी दीदी मुझसे ग्यारह साल बड़ी है ।उसने प्राथमिक स्तर की पढ़ाई घर पर ही कर ली थी ।घर पर कुछ बच्चे पढ़ने आते थे उनकी बातों को सुनकर दीदी ने बहुत सी ज्ञान की बातें सीख ली थी ।माँ बताती थी कि तीसरी की परीक्षा देकर चौथी में बैठी थी ।आइने के सामने खड़े होकर अभिनय करती थीं और अपने पाठों का बिना देखे पठन करती थी ।दीदी में ग्रहण करने की क्षमता बहुत थी ।

माँ को लोकगीत गायन ,कथावाचन के साथ साथ कला में रुची थी ।यह सारे गुण दीदी मे कुछ ज्यादा ही आ गये थे ।नृत्य के माध्यम से अभिनय करने में उन्हें मजा आता था ।स्कूल पहुंचते उन्होंने अपना गुण दिखाना शुरु किया ।स्कूल के हर कार्यक्रम में भाषण ,नाटक में भाग लेने लगी थी ।

माँ बताती थी कि मुझे ऊंगली पकड़ कर घुमाने ले जाती थी ।घर पर अपने नाटकीय शैली में ही मुझसे बातें करती थीं। 1957 की जुलाई को जगदलपुर से रायपुर आये थे ।दीदी तब नौवीं में थी ।रायपुर के जे आर दानी स्कूल में भर्ती कराया गया था ।यहाँ आते ही उनकी प्रतिभा दिखने लगी थी ।उसी साल एक भाषण प्रतियोगिता में जो ब्राम्हण पारा के लायब्रेरी मे रखी गई थी , प्रथम आईं ।इसके जज केयूर भूषण जी थे और विषय गांधी जी पर था ।अपनी बेबाक प्रस्तुति से सबको आकर्षित करती थीं ।

मैं छोटी थी तो आइने के सामने के अलावा मुझे भी सुनाती थीं ।मैं उनके लिये एक सजीव आइना थी ।मैं भी उन्हें अजूबे की तरह देखती थी ।कभी माँ को सुनाती ,कभी अकेले बोलते रहती ,कभी मुझे सुनाती थी ।मै तो इतनी छोटी थी कि बराबरी तो कर नहीं सकती थी पर पीछे पीछे घूमते रहती थी ।मेरा भी अभिनय शुरु हो गया था ।

कागज को हाथ में लेकर कुछ कुछ बोलते रहती थी ।कागज पर कुछ कुछ लिखते रहती थी जिसे कोई पढ़ नहीं सकता था न समझ ही सकता था ।हर दिन दीदी की तरह करने की कोशिश करती ।मै तो जानती भी नहीं थी कि वह क्या करती है ।हाँ स्कूल के कार्यक्रम देखने जाते तब दीदी को वही कुछ बोलते देखते जो वह घर पर करते रहती थी ।पढ़ने की शुरुआत मैने दीदी की मदद से नहीं माँ की मदद से शुरु की पर नकल पूरा दीदी का ही करती रही ।

अखबार मेरे जीवन की पहली पढ़ाई रही ।मैने चित्रों को पढ़ना सीखा ।एक उज्ज्वल व्यक्तित्व का आकर्षण बालमन में ऐसा रहा कि मैने चित्रों को पढ़ना शुरु कर दिया ।मायाराम सुरजन जी हमारे घर पर अपना अखबार नईदुनिया लेकर आये थे ।काका को अपना अखबार देने और यह कहने की इसे पढ़ा करे मै निकालता हूँ ।सफेद धोती और कुर्ता पहने हुयेऔर बगल में अखबार दबाये हुये जब चायपत्ती बंगले में आये तो पहला सामना मेंरा ही हुआ ।मैे काका को बुला कर लाई ।दोनों मे जब तक बातचीत होती रही मै उनके आस पास मंडराती रही । मैने तो चाचा ही कहा वे चले गये पर अपना व्यक्तित्व की छाप मेरे बालमन पर छोड़ गये ।

उस अखबार से मैंने बहुत कुछ सीखा पर हरदिन काका के साथ साथ अक्षरों को पढ़ती थी ।दीदी की नकल करने के लिये यह एक अच्छा माध्यम मिल गया था ।बाद में स्कूल गईऔर जब मैने पढ़ना सीखा तो यह अखबार मेरे जीवन का एक हिस्सा बन गया ।पाक कला कढ़ाई बुनाई बाल जगत फैंटम सब कुछ था इसमें ।यह साथ अब तक है पर इसमें अब साहित्य है ।

दीदी की रचनाएं इसमें छपती थी तो मै उसे पढ़ती थी और अपना भी कुछ छपे यह सोच कर पुराने लिफाफे मे अपना कुछ लिखा रख कर लिफाफे को भात से चिपका कर लेटर बाक्स में डाल देती थी ।और हर दिन देखती की मेरा क्यों नहीं छपता है ।दीदी का पत्र भी मै डालने जाती थी ।यह उस समय पता चला जब हमने पत्र लिखना सिखा कि जिसे भेजना हो उसका पता लिखना होता है ।मै तो पुराने पते को काट कर लेटर बाक्स मे डालती थी ।कहाँ भेजना है यह तो लिखती ही नहीं थी ।

एक दिन कहानी लिख कर दीदी के पास गई पुराना लिफाफा साथ में था ।दीदी ने पूछा क्या है , मैं चुप थी ।दीदी ने कहानी पूरी पढ़ी और उसमें कुछ सुधार कर मुझे दे दिया ।वह रुसी कहानी थी जिसे पढ़ कर मैंने अपनी भाषा में लिखी थी ।एक दिन ललित सुरजन भैय्या आये थे तो दीदी ने उस कहानी को भैय्या को देने के लिये कहा ।मैने कहानी भैय्या को दे दी ।वह कहानी छप गई ।उसके बाद दीदी ने मुझे कहानी अपने मन से कैसे लिखना यह बताया ।

माँ की काल्पनिक कहानियां, लोक कथायें एक आधार बनी और दीदी की शैली ने मुझे आगे के लेखन की ओर बढ़ाया ।ऊंगली पकड़ कर चलते हुये मैने कलम पकड़ना सिखा ।उस कलम से कैसे लिखना यह भी सिखा ।कल्पना की उड़ान कीतनी हो उसकी डोर को थामना भी सिखा ।आज दिशायें अलग है दोनों की लेखनी अलग है ।दीदी के लेखन में भाषा की खूशबू है तो मेंरे लेखन में भावों की , मै अपने लिये लिखती हूँ दीदी दूसरों के लिये ।

आज भी हमेंशा दीदी मेरे लेखन को बढ़ाने मे लगी रहती हैं।प्रकाशन की प्रेरणा भी उन्हीं से मिली

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