बुधवार, 2 जुलाई 2025

पाए लुगरा

Paye Lugra by Apurv Verma

 

प्रकृति अउ मनखे

Prakriti Au Mankhe by Apurv Verma

 

ये दिन भी अपने थे

Ye Din Bhi Apne the by Apurv Verma

 

मेरी डायरी

Meri Dairy by Apurv Verma


रविवार, 26 जुलाई 2020

छत्तीसगढ़ राज्य

छत्तीसगढ़ राज्य बने 19 साल हो रहा है। हम लोग अपनी भाषा के लिये लड़ रहे हैं। हर राज्य की भाषा है। छत्तीसगढ़ी की भी अपनी भाषा छत्तीसगढ़ी है। यह भाषा कभी भी काम काज की भाषा और न पढ़ाई की भाषा बन सकी। यहां के लोग अपने तीज त्यौहार की छुट्टी के लिये भी सरकार के पास अपनी मांग रखत रहे। जिस भाषा का व्याकरण 1885 में ही हीरालालकाव्योपाध्याय ने तैयार कर लिया था, जो 1890 में छप चुकी थी उस भाषा को बोली का दर्जा दिया गया। पढ़ाई के नाम पर हिंदी के साथ चार पाठ रख दिया गया है जिसे भी कई स्कूलों में पढ़ाया नहीं जाता है। तीजा हरेली की छुट्टी की मांग कई साल से चल रही थी। पंद्रह साल से जो सरकार काम कर रही थी उसने छत्तीसगढ़ में बहुत विकास का काम किया। इतने विकास के सामने भाषा और संस्कृति दबती चली गई।

सरकार नई आ गई , उसने पहले के कामों की समीक्षा करके आगे का नया रास्ता बनाया। उन्होने गांव जानवर और खेत किसान के बारे में सोचा। महिलायें अपनी मांग को लेकर गईं। एक किसान का बेटा इस बात को सोच कर मांग पूरी कर दिया कि हरेली तो हमारे छत्तीसगढ़ का बहुत बड़ा त्यौहार है। पूरे भारत में तीजा का जितना कठिन उपवास छत्तीसगढ़ की महिलायें करती हैं वैसा कहीं भी नहीं होता है। यह मायके जाने से आने तक का तीन दिन का त्यौहार है। यह तो हमारी आदिसंस्कृति है। छत्तीसगढ़ की धरती में शिव और शाक्त की ही पूजा होती है। हर क्षेत्र मे अलग अलग नाम से शिवजी पूजे जाते है। शक्तिस्वरुपा मां कुल देवी से लेकर महामाया, बम्लेश्वरी, चंडी तक के रुपों में पूजी की जाती है।

एक किसान ने इस बात को समझ कर हरेली पोला और तीजा की छुट्टी घोषित कर दी। सभी के मन में खुशी की लहर दौड़ पड़ी। क्रांतिसेना भिलाई में जबर हरेली का आयोजन करके हमारी पूरी संस्कृति को प्रदर्शित करता है। डंडा नाच ,गेड़ी नाच, पंथी ,सुआ, राऊत नाच ,बैलगाड़ी के साथ छत्तीसगढ़ी वेशभूषा देखने को मिलती है।

इस साल हरेली की छुट्टी की घोषणा के साथ स्कूलों में खेलकूद के आयोजन का आदेश निकाला गया। सच मे मेरा मन नाच उठा। आज तो "नांदिया बैल" ही नहीं दिखता है। गेड़ी को तो शहर के लोग देखे ही नहीं है।
इस साल तो बहु ही अच्छा लगा। हर स्कूल में छत्तीसगढ़ी खेल कूद हुआ, गोटा, बिल्लस, फुगड़ी, रस्सी दौड़, खो खो, बच्चों ने गेड़ी का आनंद लिया। खाने के लिये ठेठरी खुरमी, बोबरा, गुलगुला, चीला रखा गया। सबसे अच्छी बात यह रही की मुख्यमंत्री निवास पर सभी तरह के आयोजन हुये। मुख्यमंत्री ने गेड़ी में बहुत दौड़ लगाई। भौरा चलाया, चलाते हुये अपने हाथ में रख लिया और चलाया। वहां पर राऊत नाचा हुआ ,गेड़ी नाच हुआ, डंडा नाच हुआ। बैल गाड़ी भी चलाये। मुख्यमंत्री निवास छोटा छत्तीसगढ़ दिख रहा था। इतने धूमधाम से हरेली मनाई गई की मैं तो इस साल पीछे ही चली गई। जब हर जगह गेड़ी तो दिख ही जाती थी। गांव में लोग अपने खेती के औजारों को धोकर पूजा किये और बोबरा चीला का भोग लगाये। हरेली के दिन खेती के बोनी बियासी का काम समाप्त हो जाता है और औजारों को धोकर रख देते हैं। आज से ही बैलों को आराम दिया जाता है। दो माह की कड़ी मेहनत के बाद जानवर फसल कटाई तक आराम करेंगे। इस साल के आयोजन को देखकर बाहर से आये लोगों को पता चला कि छत्तीसगढ़ की हरेली कैसी होती है?
मेरा मन तो सच में खुशी से नाच उठा, हरेली ऐसी है तो पोला और तीजा में कितनी रौनक रहेगी।

मां

आज शिक्षक दिवस है।
माँ मैं तुम्हे कैसे भूल सकती हूं। तुम ही तो मेरी प्रथम गुरु हो। अपनी तालियों से मुझे हंसना सिखाया, अपने आंचल की छांव में मुझे प्यार करना सिखाया। ऊंगली पकड़ कर चलना सिखाया। अपने हाथों के सहारे मुझे खाना सिखाया। चलते हुये जब गिर जाती थी तो हंस कर पत्थर टूटने की बात कहती थी तो मैं मुस्कुरा उठती थी। जब भी चलते हुये लड़खड़ाती तो मुझे प्यार से सहला कर सीधे खड़े कर देती थी। जीवन के उतार चढ़ाव में भी मैने खड़े होना सीख लिया। कितने प्यार से मिट्टी के आंगन में पानी से लिख कर अक्षरों का ज्ञान कराया। मां तुम मुझे चौके में खाना बनाते हुये भी लिखना सिखाती थी। अगहन के महिनें में हर बुधवार की रात को आंगन में चौक बनाया करती थी। हर लाइन का मतलब बताया करती थी। कैसे लाइनों की तरह मुड़ना चाहिये ,झुकना चाहिये यह भी बताया करती थी।
गेंदे के फूलों को गुंथते हुये हमेशा एकता की ताकत को समझाया करती थी। कितनें बच्चों को रख कर पढ़ा रही थीं तो हर दिन एक ही बात कहती थीं, सबसे समान व्यवहार करना चाहिये। यह बात तुमने अपने परिवार में करके बताया था। मां तुमने मुझे एक ईश्वर की बात बताई। जातपात के भेद से ऊपर काका ने भी सभी मानव में भगवान होते हैं बताया। घर में काका रोज गीता का पाठ करते थे तो उन्होने भी एक बात सीखाई कि कर्मो का फल मिलता है इस कारण कर्म अच्छे करो,फल की चिंता मत करो। काका बी एड कालेज में प्रोफेसर थे। काका ने मुझे मंच पर वादविवाद के लिये तैयार किया तो मां ने हमेशा विषयों पर अपने भी विचार रखे। स्कूल में मिली किताबी शिक्षा को व्यवाहरिक कैसे बनाना यह मैने अपने मां काका से सीखा। चौथी पास मां जब विज्ञान के विषयों पर सवाल करती तो मुझे और गहराई से पढ़ना पड़ता था। मां ने मुझे अंधविश्वास के दायरे से बाहर रखा। मेरी विज्ञान की पढ़ाई से मां ने अंधविश्वास के दायरे को तोड़ दिया। काम कभी भी छोटा बड़ा नहीं होता काका ने सीखाया तो मां ने हर काम को करने की प्रेरणा दी। हाथ से कढ़ाई ,बुनाई, सिलाई, और पाककला के साथ साथ गोबर के कंडे बनाना और मिट्टी के चुल्हे बनाना भी सिखाया। शहर में रहते हुये गोबर से आंगन कैसे लीपा जाता है यह सब बहुत अच्छे से मैं सीख गई।
मां तुम्हारी ममता और प्यार के इस सीमा को तब समझी जब मैं स्वयं मां बनी। मैनें भी अपने बेटे के लिये उसी तरह की गुरु मां बनने का प्रयास जरुर की हूं। कुछ और भी याद आ रहा है मां तुम्हारी वह डांट , हां जब भी स्कूल कालेज से आने में देर हो जाती थी तो भगवान के सामने एक नारियल रख कर प्रार्थना करतीं और बैठक के दरवाजे पर खड़ी हो जाती थी। मेरे आने पर गुस्सा दिखातीं और बात नहीं करती थीं। मैं स्वयं सफाई देते रहती ,चाय पीती पर मां नारियल फोड़ने के बाद खाना खाते समय ही बात करती थी। यह बात तो बहुत साधारण लगती है पर वह चिंता थी कि बेटी पैदल आती जाती है, ब्राम्हण पारा जैसे गुंडो के गढ़ को पार करती है, पता नहीं क्या हो जाये। उस समय यह ब्राम्हणपारा चौक लड़कों का अड्डा हुआ करता था और सत्ती बाजार में दो दादा हुआ करते थे। बैजनाथ पारा में भी कुछ लोग थे।ये तीनों जगह के दादा के बीच आये दिन झगड़ा होता था और चाकूबाजी भी हो जाती थी। वह दौर रहा 1966--1979 के बीच, तब बहुत हड़ताल ,लड़ाई झगड़े हुइ करते थे। मां उस समय भी अपने साहस का परिचय देकर हम लोंगों को साहस देती थी।
एक ही.वाक्य रहता था " अपने रास्ते जाना और अपने रास्ते आना" सिर झुका कर चलना। यह सीख जीवन में बहुत काम आई। सच है हमें किसी से क्यों उलझना चाहिये? दूसरे के मामले में क्यों बोलें। अपने काम से काम रखे।
मां तुम्हारे दी नैतिकता की सीख और काका के दिये जीवन मूल्य ही आज मेरी धरोहर है। शिक्षक तो हमारे अक्षर ज्ञान से लिखे साहित्य को समझाते हैं पर मां तो हमें जीवन जीना सिखाती है। हममें संस्कार डालती है। संस्कार स्कूल की शिक्षा नहीं डालती है। शिक्षा हमें क्या करना चाहिये बताती है तो मां उन सबको करके बताती हैं।