रविवार, 24 जनवरी 2016

ये दिन भी अपने थे - 66


दोस्ती , एक छोटा सा शब्द है पर बहुत बड़ा है ।इसमें पूरी दुनिया समाहित रहती है ।बचपन की दोस्ती ऐसी रही कि हम लोग प्राथमिक माध्यमिक से एम एस सी तक साथ रहे और आज भी मिलते है ।सभी के क्षेत्र अलग अलग है पर दोस्ती एक ही है।उषा गौराहा जो अब त्रिपाठी है आज प्राचार्य हे ।उषा अग्रवाल कालेज के व्याख्याता के पद को छोड़कर गृहणी है ।वीणा तिवारी भी गृहणी है ।रेखा करकशे जो अब पिंपलगांवकर है रायपुर के शासकीय विज्ञान महाविद्यालय मेंसहायक प्राध्यापक है ।

हम लोग समय समय पर मिलते रहते हैँ ।फोन पर भी बातें होती है ।बहुत से सुख दुख बाट लेते हैं ।रोज नहीं मिल पाते ।जब माँ नहीं रही तब पता चला कि दोस्त तो माँ भी थी जिसे अपनी सारी बातें बताया करते थे ।शादी के बाद भी माँ ही राजदार रही थी ।

शादी हुई तो पति ने कहा कि हम एक दोस्त की तरह रहेंगे ।दोस्ती का मतलब विश्वास होता है । बस इससे ज्यादा कुछ भी नहीं कहना है ।वे मुझे गुरु कहते थे ।उनका कहना था कि मै तुमसे दुनियादारी सिखता हूँ ।मुझे तो सारी बातें बताते थे पर जब मै बताने लगती तो कहते मैने पूछा क्या ?

साहित्यकार का जाने का समय तो रहता है पर आने का नहीं रहता है ।मै गोष्ठी से रात को आती थी कभी सात कभी आठ और नौ भी बज जाता था ।खाना तो बना मिलता था पर मै बताना चाहती थी कि क्यों देरी हो गई तो बोलते थे मैने तो नहीं पूछा है ।किसने कौन सी कविता सुनाई ये जरुर सुन लेते थे ।कभी भी कोई रोक टोक नहीं ।पत्र पत्रिकाओ की लाइन लगा देते थे ।सुबह चौके पर अखबार पढ़ कर सुनाते थे ।

बेटे के होने के बाद एक और परिवार जुड़ गया ।मेरे बेटे के दोस्त की माँ अंजु अग्रवाल ।उसने मेरे बेटे को बहुत प्यार दिया और मैने उसके जुड़वा बेटों को ।हमारी दोस्ती को तेइस साल हो गये । पर कभी भी किसी के मन मे मतभेद नहीं आया ।मेरी मुलाकात तीन दिन के बाद होती ही है फोन पर भी दो तीन दिन में बात होते रहती है ।पति के जाने के बाद यह सम्बन्ध और भी मजबूत हो गया ।

एक गया और दूसरा आया या दो साथ साथ चलते रहे ।जीवन मे दोस्त की जगह हमेंशा भरी रही ।सभी में एक दूसरे के प्रति ईमानदारी भी रही ।आज एक अंजु मेरे साथ है इतना बड़ा संयुक्त परीवार पर दोस्ती निभाने के लिये समय निकाल लेती है ।बेटे को बुखार है तो रात को मेरे घर आ कर मेरे साथ रहती है अब अकेले जाने मे घबराहट होती है पैरों की तकलीफ की वजह से तो वो आटो करके मेरे साथ जाती है ।एक बार पति के साथ सिनेमा जाती है तो बाद में मुझे दिखाने ले जाती है । कभी कभी लगता है ये मेरे परिवार की है क्या ? प्यार और अपनापन ऐसे बांध लेती है जैसे हम दो नहीं एक है ।रिस्ता हो या कोई बाहर का व्यक्ति जब मित्र बनता है तो उसमें ईमानदारी आ जाती है।

मित्रता या दोस्ती है ही ऐसी ।पर क्ई बार दोस्त धोखा दे जाते है ।अपने मतलब निकालने के लीये दोस्ती करते है ।यह दोस्ती नहीं है ।यह सम्बध दोस्ती का एहसास दिलाता है पर होता नहीं है ।

इसके अलावा एक दोस्ती और थी ।मेरे और उनके शौक एक थे पौधौ से प्यार और बागवानी के साथ साथ साहित्यिक रुचि ।हम दोनो रोज मिलते थे । वे मेरे घर के पास रहती थीं ।मै उन्हें आई कहती थी ।मराठी थी ।मेरा सम्बंध पूरे परिवार से था ।हम दोनों की दोस्ती को लेकर सब मजाक उड़ाते थे ।कभी हमारे हाथों मे कुछ पौधे या फिर डायरी होती थी ।कालोनी मे सभी को पता था कि ये लोग बैठ कर कविता सुनाते है ।पर आई इस साल सत्ताईस जनवरी को दुनिया छोड़ कर चली गई ।

अलग अलग समय मे अलग अलग दोस्त बनते चले गये ।पर गिने चुने ही साथ रहे ,जो सालों साथ है ।सहेलियां पचास साल से साथ है पर जगह की दूरी परिवार की जिम्मेदारी सिर्फ़ बातों तक रह गई ।माँ हमेंशा साथ नहीं रह सकती थी पर मरते तक सुख दुख का साथ रहा ।पति भी नहीं रहे ।इसे प्रकृति ने अलग किया ।आई भी अंत मे छोड़ कर चली गई ।पर अंजु अभी भी साथ है यह जरुर है कि कुछ लोग तो मतलब निकालने ही आते है और चले जाते है ।
मैने दोस्त के बहुत से रंग देख ली ।दोस्ती कि अर्थ तब समझ में आता है जब दोस्त न रहे।साल गुजरता रहा ,एक के बाद एक जाते रहे और दोस्ती मे क्या पाये क्या खोये इसका लेखा जोखा मन में होता रहा ।बचे दोस्त की और मजबूत होती रही ।

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