रविवार, 24 जनवरी 2016

ये दिन भी अपने थे - 39


माँ के पास बहुत से लोग पढ़ने के लिये रहे । गांव से लोग नौकरी करने शहर की ओर आ रहे थे ।प्राथमिक शिक्षा के बाद आगे की पढ़ाई के लिये भी लोग शहर की ओर आ रहे थे ।शहर मे किराए का मकान लेकर रहते थे या फिर किसी रिस्तेदार के घर में रहते थे ।उस समय लोग पैसा नहीं लेते थे ।लोग बच्चों को रखते थे तो जिनके बच्चे रहते थे वे लोग अपने खेती में पैदा होने वाले अनाज दिया करते थे ।

यह सन्1955--1970 तक ज्यादा था ।शहर में तब हॉस्टल भी नहीं थे ।रेल्वेस्टेशन के पास साहू लोगों का हॉस्टल था ।रायपुर के तात्यापारा में कुर्मी छात्रावास था ।मेरे काका भी सन् 1928 में वहाँ रहने आ गये थे ।सेंटपॉल स्कूल में फढ़ते थे ।काका ने अपनी परेशानी देखी थी तो परिवार के लोगों को अपने पास ही रख कर पढ़ाने का निर्णय लिया ।

पहले अपनी छोटी बहन को रखे ।दो चाचा को रखे ।एक अपने मामा के बेटे को भी रखे थे ।वे पूरी बी टी आई ट्रेनिंग तक रहे ।बाद में मेरे बड़े पिताजी के बेटे ,चाचा का लड़का ,बुआ के दो बेटे रह रहे थे ।दस से बारह लोग रहते थे हम सब मिला कर ।

पांच किलो चावल बनाते थे । सुबह रोटी नहीं बनाते थे । शाम को रोटी और चांवल दोनों बनाते थे ।माँ चुल्हे पर खाना बनाती थी ।साढ़े नौ बजे सब आंगन में खड़े हो जाते थे ।खाना बना कि नहीं देखते रहते थे ।माँ हड़बड़ा जाती थी ।जल्दी से पीढ़ा रखती थी और चलो बैठो कहती थी ।

खाना देकर आचार चटनी निकालने लगती थी ।मै और रवि मेरा भाई देर से खाते थे ।चार कभी पांच लोग एक साथ खाना खाते थे । माँ चुल्हे के सामने बैठे रहती थी ।सामने सब को बैठा कर खाना परोसती थी ।चौका बड़ा था ।चल चल कर बाहर परसने की ताकत नहीं रहती थी ।सब उठ कर चले जाते उसके बाद माँ सब थालियां उठाती थी उसके बाद कुछ काम और करती थी । साढ़े दस ग्यारह बजे हम भाई बहन खाते थे ।

माँ सुबह पांच कभी छै बजे उठती थी ।पहले चुल्हे पर लकड़ी और कंडे को मिट्टी तेल डालकर जलाती थी । उसके सुलगते तक दातून करती थी ।सबके लिये चाय बनाकर केतली में छान कर रख देती थी ।दो मुंह का चुल्हा रहता था । सामने के चुल्हे पर बड़े से कांसे के बटलोई में पानी रखती थी और बाजू के चुल्हे पर दाल की बटलोई रखती थी ।दाल की बटलोई में दाल डाल देती थी ।अब इतना कुछ करके नहाते चली जाती थी ।नहा कर निकलते ही तुलसी चौरा के तुलसी में एक लोटा पानी डालती थी । वहीं पर शिवलिंग रखा था उसमें एक लोटा पानी डालती थी ।अंदर जाकर कपड़े पहनने के बाद कुछ फोटो थे उसके पास अगरबत्ती जलाती थी ।

अब चौका में पहुंचते ही पांच किलो चांवल एक पीतल की बाल्टी में धोकर रखती थी ।बटलोई का पानी खौलने लगता था तब चांवल को उसमें डालती थी ।दाल को खोलकर देखती थी कि पानी कम तो नहीं हो गया । अब सब्जी काटने बैठ जाती थी ।चुल्हे के पास ही बैठी रहती थी ।तब तक चुल्हे के जलते हुये कोयले को बाजू की कोयले की सिगड़ी में डालती और दाल की बटलोई को उस पर रख देती थी ।

अब चुल्हे के खाली हुये दूसरे तरफ कढ़ाई रख कर सब्जी बनाना शुरु करती थी ।एक लाइन में सिलबट्टा उसके बाद कोयले की सिगड़ी फिर दो मुंह का चुल्हा था ।अंत मे जो खाली जगह थी वहाँ पर दो तीन लकड़ी और दो तीन कंडे रखे रहते थे ।चलना न पड़े इस कारण चौके में माँ सब कुछ अपनी पहुँच में रखी हुई थी । मसालेदार सब्जी तो नहीं बनती थी पर धनिया और लहसुन सिलबट्टे पर पीस कर डालती थीं ।माँ के हाथों की सब्जी सबको अच्छी लगी थी ।आज भी लोग याद करते हैं।चांवल को पसा कर बनाया जाता था याने उसका माढ़ निकाल देते थे ।माढ़ गाय पीती थी ।

माँ बारह बजे खाना खा कर फुरसत में होती थी ।उसके बाद साड़ी बदलती थी ।माँ सुबह नहा कर अंडी की साड़ी पहनती थी ।चौके में रहते हुये किसी को छुती नहीं थी ।बारह बजे खाना खाने के बाद साड़ी बदलती थी और उतारी हुई साड़ी को धोकर सुखा देती थी ।काम वाली बाई जिसका नाम फाफी था वह अपना काम करते रहती थी ।उसके लिये भी खाना निकाल कर अलग से रख देती थीं।

माँ अब बैठक का दरवाजा खोलकर जमीन पर बैठ जाती थीं । अब उनका पेपर पढ़ने का समय होता था ।पेपर के अलावा धर्मयुग ,हिंदुस्तान,कल्याण पढ़ती थी।ये सब काका माँ के लिये मंगाते थे ।काका तो पेपर ही पढ़ते थे कभी कभी ही पत्रिका पढ़ते थे ।रास्ते में आने जाने वालों से बातें भी करती थी ।लोगों को समाचार भी बताती थी ।

एक डेढ़ बजे आराम करने के लिये लेट जाती थी । तीन बजे उठती थी क्योंकि गाय आ जाती थी ।उसे बांध कर फिर बैठक के दरवाजे पर बैठ जाती थीं ।पांच बजे तक वहाँ पढ़ते और बात करते बैठी रहती थी ।इस बीच कुछ बच्चे भी आकर बैठ जाते थे ।माँ को बच्चों से बात करना अच्छा लगता था ।घर में बिही याने अमरुद बहुत फलते थे बारहों महिने फला रहता था ।अनार का पेड़ था वह भी फला ही रहता था ।माँ इन बच्चों को कुछ नकुछ देते रहती थी ।

शाम को गाय को दाना देकर खाना बनाने लग जाती थी सुबह की तरह ही बनता था पर चांवल कम बनता था ।
दो किलो की रोटियां बनाते थे ।आखिर इतना खाना क्यों? छत्तीसगढ़ में गांव में लोग काम करते है और घूमते है तो खुराक बहुत रहती है ।चांवल आधा किलो से तीन पाव खा लेते थे ।खाली रोटी खाना हो तो बीस रोटियां आराम से खा लेते है ।

माँ सुबह की तरह खाना बनाने के बाद चुल्हे पर रोटियां सेकती थी ।मैं जब छोटी थी तब माँ को बनाते हुये देखती थी ।पांचवी में आते ही माँ ने सब कुछ सिखा दिया ।मुझे बाहर एक सिगड़ी में रोटी सेकने बैठा देती थी ।रोटियां चिमटे से सेकती थी तो टुट जाता था तो भैय्या लोग कहते थे कि बेबी रोटी को शबरी की तरह चख कर देती है ।मुझे रोना आता था ।मैं रोटी बनाना बंद करके रोती थी तो माँ भी रोकर मनाती थी क्योंकि वह इतनी रोटियां बनाती कि बाकी खाना ?

ठंडी के दिनों में नहाने का पानी गरम करने के लिये भूसे की सिगड़ी भी जलाते थे ।माँ का काम बढ़ जाता था ।बारिश तो जैसे कहर लेकर ही आता था । गीली लकड़ी जलती नहीं थी और खाना सबको साढ़े नौ बजे चाहिये । दाल न गले तो उसमें घी डालते थे ।कंडे ही जलाते थे ।माँ की आंखे धुयें से लाल हो जाती थी ।

सन् 1947--73 तक माँ ने कमरतोड़ मेहनत की ।विद्या दान के लिये ।कभी किसी से काम की मदद नहीं मांगी ।गांव से कभी बड़ी माँ बुआ या मामी नहीं आई खाना बनाने के लिये ।बीमार होने पर भी जमीन में सोकर खाना बनाती थी ।माँ जो अपने बच्चों को भूखा नहीं देख सकती इसका उदाहरण मैने अपनी माँ में देखा था ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें