रविवार, 24 जनवरी 2016

ये दिन भी अपने थे - 56


नाम से उसकी पहचान होती है ।कुछ लोग कहते है नाम के अनुसार व्यक्तित्व बनता है पर मैने एक ही नाम के चार व्यक्तियों का बिल्कुल अलग अलग व्यक्तित्व देखा और सुना है ।

"
खम्हनलाल " एक नाम और चार अलग अलग गुण के लोग ।मेरे सबसे बड़े मामा का नाम खम्हनलाल था ।मामा जी खूब गोरे और छै फीट से ऊंचे थे ।मेरे तीन मामा बहुत लम्बे थे ।बड़े मामा हमेंशा घोड़े पर ही आना जाना करते थे । वे हमेंशा पूरे परिवार को लेकर चलते थे ।माँ छोटी थी और उससे छोटे मामा दो तीन साल के थे तभी हमारी नानी का देहांत हो गया था ।तो मामा मामी माँ और छोटे मामा को बहुत प्यार करते थे ।

माँ की उम्र मामा की दूसरे नम्बर की बेटी के बराबर थी ।बड़ी माँ याने माँ की बड़ी बहन की बेटी भी माँ के बराबर थी ।माँ खाना खाती तो माँ अपनी थाली नहीं उठाती थी ।मामा ने कह रखा था कि वह थाली नहीं उठायेगी ।उसकी थाली उसकी भाभियां उठायेंगी ।माँ अपने मायके में सिर्फ खेलने और घूमने का काम की ।नहर तालाब में तैरना ,मछली पकड़ना ,गुड़ की कड़ाही में रस्सी में भटा बांध कर डाल कर पकाना और खाना ।यह सब नखरे उठाते थे ।शादी के बाद माँ को तीन बार जेवर दिये ।उनके एक बार कहने पर ही मामियां उनका कहना मानती थी ।मामा ने गांव वालो की भी मदद की ।वे बहुत दयालु थे ।

दूसरे "खम्हनलाल " मेरे काका थे ।वे शिक्षाविद् थे ।काका ने बहुत कठिनाइयों से अपनी पढ़ाई पूरी की और पूरे परिवार के लोगों को पढ़ाने के लिये अपने पास रखा । परिवार की लड़कियों को भी पढ़ने के लिये प्रेरित किये ।गांधीवादी विचार धारा हमेशा उनके कामों में दिखाई देती थी ।गीता पूरी याद थी ।रोज सुबह चार बजे उठ कर गाय की सेवा करना और नहा कर गीता का पाठ करना उनकी दिनचर्या की शुरुआत थी ।कुछ गरीब बच्चों को पढ़ाई में मदद करते थे ।पैसा ,कापी ,पुस्तक से मदद करते रहते थे ।शिक्षा के लिये समर्पित व्यक्तित्व रहा ।पेड़ पोधे के प्रति बहुत प्यार था अपने साथ सीताफल अनार आम के बीज लेकर चलते थे । खाने के बाद खाली जगह पर इन बीजों को फेक देते थे ।स्कूल के मैदान में पारीजात मधुकामिनी लगाते रहते थे ।

तीसरे " खम्हनलाल " मेरे फूफाजी थे । बहुत ही सीधे साधे थे ।वे नवागांव मोहभट्ठा के दाऊ थे ।इतने नौकर चाकर के बीच सरलता ही झलकती थी ।तीन बेटे थे ।बड़े मनहरण भैय्या इंजीनियर है बीच के कैलाश भैय्या होमियोपैथी डाक्टर है छोटा भाई भूषण पालिटेकनिक करने के बाद खेती कर रहा है ।शिक्षा के प्रति प्यार ही तीनों को शिक्षित करने मे मददगार बनी ।भैय्या हमारे घर रह कर ही पढ़े थे ।कभी कभी ही रायपुर आते थे ।छोटे बेटे के लिये रविशंकर विस्वविद्यालय तक गये थे ।वे अपनी सहजता और सरलता के लिये ही जाने जाते थे ।

चौथा "खम्हनलाल" शकुन दीदी के पति थे ।एक क्रूर , दरिंदा ,और खूनी इंसान ।जिसने पिता को भी मारा ।शकुन दीदी का बड़ा बेटा बड़े होने के बाद किडनी की बीमारी से मर गया ।उसने दूसरी शादी भी की थी ।मैने कभी उसके बारे में जानने की कोशिश नहीं की ।

इन चार खम्हनलाल संयोग से मिले थे आपस में रिस्ता भी था पर कितने अलग थे ।तीन को लोग याद करते हैं पर एक को गाली देते हैं ।हम लोग अच्छा नाम किसे कहते है ।एक अच्छा व्यक्तित्व देख कर उसका नाम अपने बच्चे को दे देते हैं पर संस्कार ?

संस्कार नहीं दे पाते तो वह व्यक्तित्व भी नहीं जी पाता ।संस्कार की सीढ़ी से ही वह ऊपर चढ़ता है और नई साखें कोपलों से लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता है ।उसकी संस्कारों की महक लोगों तक पहुंचती है तब लोग उसकी तरफ आते हैं। नाम में क्या रखा है ।नाम तो बनाना पड़ता है ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें