मैं पुरी पहिली बार 1980 में गई थी। दूसरी बार अपूर्व को.लेकर 1996 में गई थी। तीसरी बार जाने की बहुत इच्छा हो रही थी पर कोई साथ नहीं मिल रहा था। कई लोगों को बोल रही थी की पुरी जाना तो मुझे ले जाना पर किसी का साथ नहीं हो पा रहा था। अपूर्व जब पिछले साल पुरी गया तो मै भी साथ जाने वाली थी। मेरी सास ने लौह स्तम्भ के सामने बोल दिया था की जब भी बच्चा होगा तो उसे लेकर पूरी आयेंगे। बच्चा भी बारह वर्ष के बाद हुआ तो उसे 1996 में ले गये थे। अब शादी हो गई तब सोची की बहु को लेखक आशीर्वाद के लिये जाऊंगी पर साथ जाना नहीं हो पाया।
बीस तारीख को अचानक इंदु का फोन आया " दीदी पुरी चलोगे, कल चार बजे निकलेंगे।" अचानक चौबीस साल के बाद पूरी जाने के लिये ऑफर आ गया। मैं पहले तो नहीं बोली फिर जाने की सहमती दे दी।शाम को बेटे बहु को बताई तो अपूर्व तो खुशी से उछल पड़ा और बोला" अच्छा है बहुत दिनों से सोच रहे थे अब मामी बोल रही तो जाओ।" वह बैग तैयार कर दिया। दूसरे दिन महाशिवरात्रि थी। मैं रात के लिये रोटी सब्जी रख ली।हम लोग साढ़े तीन बजे ही रेल्वे स्टेशन पहुंच गये। अब तो पुरानी डायरी के पन्ने दिखने लगे और उसे पढ़ने लगी। बहुत दूर से दिखता समुद्र, शाम को लगा बाजार, खुला सा मंदिर, अंदर का परिसर भी खाली खाली। यह हमारा हनीमून था, सास ससुर और ननंद के साथ,हा हा हा हा।
आराम से पंडो से बचते दर्शन करके कल्प वृक्ष पर धागा बांध कर आ गये। खुला सा परिसर था। जगन्नाथ भगवान के मंदिर के सामने चौड़ा सा खुला रास्ता था। भाई बहु औ भतीजी का परिवार भी आ गया। हम लोग इलेक्ट्रिक गाड़ी में बैठ कर पांच नम्बर के प्लेटफार्म पर गये। रेल भी समय पर आ गई। हम लोग बैठ गये और गप्प मारते, कुछ कुछ खाते हुये पुरी पहुंच गये।
हम लोग सुबह नौ बजे पहुंचे तभी रेल में ही एक गाइड मिल गया जिससे हमने दो दिन घूमने का पैकेज ले लिया। वही हमें अपनी गाड़ी से होटल तक छोड़ दिया। पांच सात मिनट का रास्ता था। हम लोग तैयार होकर ग्यारह बजे नीचे आ गये। टेक्सी का रास्ता देख रहे थे।
हम लोग रास्ता देखते रहे और होटल में ही रुके एक दम्पत्ती बाहर खड़े थे उसे टेक्सी वाला लेकर चला गया। उसकी टेक्सी खड़ी थी। एक घंटे क बाद गलत फहमी का खुलासा हुआ। हम लोग उनकी टैक्सी में बैठ कर निकले। एक घंटे के बाद वह टेक्सी हमें मिली। वे लोग रास्ते में रूके थे। हम लोग गाड़ी बदल कर आगे बढ़े। करीब एक घंटे में चील्खा झील पहुंच गये।खाना खाकर बोटिंग किये। सुरक्षा कवच पहन कर गये थे, डॉल्फिन देखने जा रहे थे। उसके लिये दो घंटे का सफर था। पानी में तरह तरह के टापू देखते हुये आगे बढ़ रहे थे कि नाविक ने एक टापू पर रोक दिया। उस
टापू पर लाल केकड़े दिखाने एक व्यक्ति आया। हम लोग देखकर खुश हो गये। छोटे छोटे मरे हुये बंद सीप,कोरल लेकर आ गया। हमारे मना करने के बाद भी फोड़ने लगा ,बोलने लगा मोती देखो भले मत खरीदना। पांच मोती निकाला, मैं विडियो भी तैयार की। पांच सौ की मोती बोलकर दो सौ में उतर गया। उसके बाद ओपेल निकाला जिसकी कीमत पांच हजार बोल कर पंद्रह सौ में उतर गया। फिर.एक मूंगा निकाला एक हजार बोलन लगा। अब हम लोग सोचने लगे कि इतने बढ़िया आकार का तराशा हुआ नग नहीं निकल सकता। वहां से बहुत से सवाल लेकर डॉल्फिन देखने पहुंचे बहुत देर के बाद तीन चार बार पूंछ दिखी उसके बाद दो डॉल्फिन की पीठ दिखी। सपनो पर रोक लग गई। तब मुझे पुराने चील्खा झील की याद आई जहां से हम लोग एक टापू पर काली माई के मंदिर में पूजा करने गये थे। नाविक बताया की तूफान के कारण वह पूरी तरह से नष्ट हो गया है। हम लोग वापस आ गये। आने के बाद लगा की पुरी से चार घंटा आने जाने में, समुद्र आने जाने में चार घंटा याने आठ घंटे में कुछ भी मजा नहीं आया। कुछ लोग स्टोन में दो चार हजार लुटा भी दिये।
दूसरे दिन भुनेश्वर गये। पहले " चंद्रभागा " नदी या कहें समुद्र का किनारा देखे। यहां पर छत्तीसगढ़ की महानदी आकर समुद्र में मिलती है। बहुत ही सुंदर समुद्र किनारा है।पहले नदीआते हुये और मिलते हुये दिखाते थे।जगह बदल गई है लगता है। यहां से कोणार्क गये वह भी बहुत बदल गया है। तीसरी बर देखने पर लगा कि इसका व्यवसायी करण हो चुका है। मैं बैठी रही देखने को कुछ नहीं था। बार बार उन मुर्तियों को देखने का कोई मतलब नहीं था।
दाहिने तरफ के चक्के के साथ फोटो लेकर वापस आ गये। बाहर का बाजार तो सब जगह एक जैसे ही रहा, पर यहां पिपली वर्क मिल रहा था। यहां से नंदनकानन गये।यहां पर इतनी दुकाने और इतनी भीड़ से अच्छा जंगल सफारी है। वहां का नंदनकानन अब देखने लायक नहीं रह गया है। तूफान में वह भी खत्म हो चुका है।1980 का कानन याद आ गया, 1996 का नंदनकानन याद आ गया। वह पन्ने तो अब यादों के पन्ने बन गये हैं। बाहर बहुत सी दुकाने लगी थी जहां काजू और खसखस 400₹ किलो में मिल रहा था। दागदार काजू लेने के बाद लगा यह भी धोखा है।खंड
गिरी उदय गिरी छोड़ दिये। यहां से हम लोग साक्षी गोपाल देखने चले गये क्योंकि यह पुरी से 15 किलोमीटर पहले ही है।हम लोग पंडों से बिना बात किये ही दर्शन करके बाहर आ गये।पिछले दो बार आये थे तब यह बंद ही रहता था। कहा जाता है कि इसके दर्शन करना चाहिये यही जगन्नाथ भगवान के दर्शन के साक्षी रहत हैं। यहां नहीं जा पाये तो छत्तीसगढ़ के राजिम के साक्षी गोपाल के दर्शन करना चाहिये।
होटल में जाकर आराम करके समुद्र किनारा देखने चले गये।रात को लहरें बहुत ही सुदर लग रही थी। रात बारह बजे के खरीब म लोग वापस ये।बाजार में तरह तरह की चीजें बिक रही थी यह सब पहले की तरह ही है। बस किनारे में बहुत से होटल बन गये हैं। मेरी डायरी का यह पन्ना नहीं बदला है। अच्छा लगा कि कुछ तो पहले की तरह है।
यहां पर मोती, पन्ना, डायमंड, पुखराज, माणिक, ओपेल याने नवरत्न, मूंगा सब मिलता है। दो हजारपांच ,दस हजार स शुरू होता है,भाव गिराते गिराते बीस रुपये में दे देते है। इसका इतना बड़ा धंधा है की एक दिन में पांच हजार से दस हजार तक कमा लेते हैं। यहां से धोखा खाये लोग किसी को नहीं बताते हैं कि ये सब मत.खरीदना। जब बात खुलतीहै तो मजा लेते हैं की आप भी बुद्धु बने और आप भी बन गये।
रात को लौटते हुये खाना खाये। पहले दिन का अनुभव था कि यहां पर दस बजे तक सब होटल बंद हो जाते हैं। हमारे होटल के पास ही एक रेस्टोरेंट था जहां ग्यारह बजे तक खाना मिलता था वहां पर खाना खाये। मजा आ गया , एक प्लेट बिरयानी या फिर जीरा फ्राई को दो लोग खा सकते है या तीन लोग भी खा सकते हैं। वहां पर चांवल भर भर कर देते हैं। सभी जगह सब्जी दाल सब बढ़िया मिल रहा था।पुरानी डायरी के पन्ने याद आनू लगे जब चांवल तो ऐषा ह मिलता था पर दाल सब्जी में स्वाद नहीं रहता था।टूरिस्ट अच्छे खाने के लिये तरसता था।अच्छे होटल कहीं कहीं ही दिखते थे। अब रोटियां भी बढ़ियामिलती है, तंदूरी भी मिलती है। समुद्र के किनारे भी आमलेट ,मछली और रोटी सब्जी मिल रही थी। खाने की कमी नहीं थी।
हम लोग दूसरे दिन दस बजे जगन्नाथ मंदिर गये। वहां भी बहुत से लोग फुटपाथ पर सामान बेच रहे थे। रथ यात्रा के दिन दिखने वाला रास्ता फुटपाथ की दुकानों से भरा था। लोहे की रैलिंग लगी थी कि लोग लाइन से आयें। हम लोग एक गाइड करके पश्चिम के दरवाजे से गये। मुख्य मंदिर के बाहर के सभी मंदिर देख लिये। चिटियों की तरह लोग भरे थे। वहां दो मूर्ति पहले नहीं थी, एक साक्षी गोपाल और दूसरा बट गणेश। बट वृक्ष जिसे कल्प वृक्ष कहते हैं वह सन् 1980 में खुला था, उसमे मन्नत के लिये धागे बांधते थे। एक रूपये में खरीदते थे। 1996 में भी वह खुला ही था पर वहां पर एक कमरा बन गया है जहां पंडित अपनी दुकान खोल कर बैठा है। धागा बांधने के लिये 365₹ ले रहा है। उसकी बाहरी दीवार पर बट की डगाल के नीचे एक गणेश जी की स्थापन कर दी गई है । बट के नीचे है इस कारण " बट गणेश " जी हैं। यहां पर साक्षी गोपाल हैं तो लोग दूसरे साक्षी गोपाल के दर्शन के लिये क्यों जाते हैं?
हम लोगों को एक दरवाजे से अंदर दर्शन के लिये ले गया और भीड़ के साथ खड़ा कर दिया। बहुत धक्का खाते हम लोग दर्शन करते निकल गये। मुझे तो बस भगवान की एक आँख ही दिखाई दी। जगह जगह पाइप लगे है तो अंदर तक तीन लोगों की लाइन ही रखते तो सबको भगवान जी दिखते। मन की आँखो से देखते हुये हम लोग फिर समुद्र किनारे पहुंच गये।आटो से पुरी होटल के सामने तक गये ,वह 150₹ लिया। वहां पर दो बजे तक बैठे रहे।मैं तो समुद के लहरों के पास बैठ गई और कमर तक पानी का मजा लेते रही। पिछले दो बार में मैं बस लहरों को घुटने तक ही ली थी। एक घंटे पानी का मजा लेकर जल वरुण देवता को प्रणाम कर बाहर आई। फिर हम लोग अपने होटल की तरफ चले गये। रास्ते मे खाना खाये।
हमारी रेल दो घंटे लेट थी तो हम लोग रात का खाना पैक करा कर शाम सात बजे होटल से निकले। प्लेटफार्म पांच पर पुरी दुर्ग एक्सप्रेस खड़ी थी।हम लो ए सी टू में बैठ गये। मैं मेरी भाई बहु इंदु, भतीजी शिखा कश्यप और दामाद नवीन को एक ही कूपा मिल गया था। भतीजी नातिन चेरी के साथ बातें करते हम लोग दूसरे दिन रायपुर पहुंच गये।एक सुखद यात्रा तो रही पर तीर्थ पर या पर्यटन स्थल पर कितनी लूट होती है इसका उदाहरण है पुरी। आस्था के नाम कर जगन्नाथ की कसम खाकर भी लोग नकली सामान बेच देते हैं। चालीस साल में बहुत कुछ बदल गया है। दिल से मैने अपने छोटे भाई रवि को धन्यवाद दिया कि उसके न जा पाने के कारण मेरी तीसरी बार पुरी जाने की इच्छा पूरी हो गई। कहानी का अंत ऐसे ही नहीं होता है , तो कैसे? आप लोग भी सोशल मिडिया के कारण भूल गये, चलिये याद दिलाती हूं। हमारी दादी नानी कहानी के अंत में कहती है की " जैसे उसकी इच्छा पूरी हुई वैसी सबकी इच्छा पूरी हो" भाई की इच्छा भी जल्द ही भगवान पूरी करे।
मैं डायरी के इन पन्नों को आपके लिये भेज रही हूं। आप लोग " पुरी" जायें तो ऐसे ठगों से दूर रहें, जो खरीदना है अपने शहर में खरीदें।