रविवार, 26 जुलाई 2020

छत्तीसगढ़ राज्य

छत्तीसगढ़ राज्य बने 19 साल हो रहा है। हम लोग अपनी भाषा के लिये लड़ रहे हैं। हर राज्य की भाषा है। छत्तीसगढ़ी की भी अपनी भाषा छत्तीसगढ़ी है। यह भाषा कभी भी काम काज की भाषा और न पढ़ाई की भाषा बन सकी। यहां के लोग अपने तीज त्यौहार की छुट्टी के लिये भी सरकार के पास अपनी मांग रखत रहे। जिस भाषा का व्याकरण 1885 में ही हीरालालकाव्योपाध्याय ने तैयार कर लिया था, जो 1890 में छप चुकी थी उस भाषा को बोली का दर्जा दिया गया। पढ़ाई के नाम पर हिंदी के साथ चार पाठ रख दिया गया है जिसे भी कई स्कूलों में पढ़ाया नहीं जाता है। तीजा हरेली की छुट्टी की मांग कई साल से चल रही थी। पंद्रह साल से जो सरकार काम कर रही थी उसने छत्तीसगढ़ में बहुत विकास का काम किया। इतने विकास के सामने भाषा और संस्कृति दबती चली गई।

सरकार नई आ गई , उसने पहले के कामों की समीक्षा करके आगे का नया रास्ता बनाया। उन्होने गांव जानवर और खेत किसान के बारे में सोचा। महिलायें अपनी मांग को लेकर गईं। एक किसान का बेटा इस बात को सोच कर मांग पूरी कर दिया कि हरेली तो हमारे छत्तीसगढ़ का बहुत बड़ा त्यौहार है। पूरे भारत में तीजा का जितना कठिन उपवास छत्तीसगढ़ की महिलायें करती हैं वैसा कहीं भी नहीं होता है। यह मायके जाने से आने तक का तीन दिन का त्यौहार है। यह तो हमारी आदिसंस्कृति है। छत्तीसगढ़ की धरती में शिव और शाक्त की ही पूजा होती है। हर क्षेत्र मे अलग अलग नाम से शिवजी पूजे जाते है। शक्तिस्वरुपा मां कुल देवी से लेकर महामाया, बम्लेश्वरी, चंडी तक के रुपों में पूजी की जाती है।

एक किसान ने इस बात को समझ कर हरेली पोला और तीजा की छुट्टी घोषित कर दी। सभी के मन में खुशी की लहर दौड़ पड़ी। क्रांतिसेना भिलाई में जबर हरेली का आयोजन करके हमारी पूरी संस्कृति को प्रदर्शित करता है। डंडा नाच ,गेड़ी नाच, पंथी ,सुआ, राऊत नाच ,बैलगाड़ी के साथ छत्तीसगढ़ी वेशभूषा देखने को मिलती है।

इस साल हरेली की छुट्टी की घोषणा के साथ स्कूलों में खेलकूद के आयोजन का आदेश निकाला गया। सच मे मेरा मन नाच उठा। आज तो "नांदिया बैल" ही नहीं दिखता है। गेड़ी को तो शहर के लोग देखे ही नहीं है।
इस साल तो बहु ही अच्छा लगा। हर स्कूल में छत्तीसगढ़ी खेल कूद हुआ, गोटा, बिल्लस, फुगड़ी, रस्सी दौड़, खो खो, बच्चों ने गेड़ी का आनंद लिया। खाने के लिये ठेठरी खुरमी, बोबरा, गुलगुला, चीला रखा गया। सबसे अच्छी बात यह रही की मुख्यमंत्री निवास पर सभी तरह के आयोजन हुये। मुख्यमंत्री ने गेड़ी में बहुत दौड़ लगाई। भौरा चलाया, चलाते हुये अपने हाथ में रख लिया और चलाया। वहां पर राऊत नाचा हुआ ,गेड़ी नाच हुआ, डंडा नाच हुआ। बैल गाड़ी भी चलाये। मुख्यमंत्री निवास छोटा छत्तीसगढ़ दिख रहा था। इतने धूमधाम से हरेली मनाई गई की मैं तो इस साल पीछे ही चली गई। जब हर जगह गेड़ी तो दिख ही जाती थी। गांव में लोग अपने खेती के औजारों को धोकर पूजा किये और बोबरा चीला का भोग लगाये। हरेली के दिन खेती के बोनी बियासी का काम समाप्त हो जाता है और औजारों को धोकर रख देते हैं। आज से ही बैलों को आराम दिया जाता है। दो माह की कड़ी मेहनत के बाद जानवर फसल कटाई तक आराम करेंगे। इस साल के आयोजन को देखकर बाहर से आये लोगों को पता चला कि छत्तीसगढ़ की हरेली कैसी होती है?
मेरा मन तो सच में खुशी से नाच उठा, हरेली ऐसी है तो पोला और तीजा में कितनी रौनक रहेगी।

मां

आज शिक्षक दिवस है।
माँ मैं तुम्हे कैसे भूल सकती हूं। तुम ही तो मेरी प्रथम गुरु हो। अपनी तालियों से मुझे हंसना सिखाया, अपने आंचल की छांव में मुझे प्यार करना सिखाया। ऊंगली पकड़ कर चलना सिखाया। अपने हाथों के सहारे मुझे खाना सिखाया। चलते हुये जब गिर जाती थी तो हंस कर पत्थर टूटने की बात कहती थी तो मैं मुस्कुरा उठती थी। जब भी चलते हुये लड़खड़ाती तो मुझे प्यार से सहला कर सीधे खड़े कर देती थी। जीवन के उतार चढ़ाव में भी मैने खड़े होना सीख लिया। कितने प्यार से मिट्टी के आंगन में पानी से लिख कर अक्षरों का ज्ञान कराया। मां तुम मुझे चौके में खाना बनाते हुये भी लिखना सिखाती थी। अगहन के महिनें में हर बुधवार की रात को आंगन में चौक बनाया करती थी। हर लाइन का मतलब बताया करती थी। कैसे लाइनों की तरह मुड़ना चाहिये ,झुकना चाहिये यह भी बताया करती थी।
गेंदे के फूलों को गुंथते हुये हमेशा एकता की ताकत को समझाया करती थी। कितनें बच्चों को रख कर पढ़ा रही थीं तो हर दिन एक ही बात कहती थीं, सबसे समान व्यवहार करना चाहिये। यह बात तुमने अपने परिवार में करके बताया था। मां तुमने मुझे एक ईश्वर की बात बताई। जातपात के भेद से ऊपर काका ने भी सभी मानव में भगवान होते हैं बताया। घर में काका रोज गीता का पाठ करते थे तो उन्होने भी एक बात सीखाई कि कर्मो का फल मिलता है इस कारण कर्म अच्छे करो,फल की चिंता मत करो। काका बी एड कालेज में प्रोफेसर थे। काका ने मुझे मंच पर वादविवाद के लिये तैयार किया तो मां ने हमेशा विषयों पर अपने भी विचार रखे। स्कूल में मिली किताबी शिक्षा को व्यवाहरिक कैसे बनाना यह मैने अपने मां काका से सीखा। चौथी पास मां जब विज्ञान के विषयों पर सवाल करती तो मुझे और गहराई से पढ़ना पड़ता था। मां ने मुझे अंधविश्वास के दायरे से बाहर रखा। मेरी विज्ञान की पढ़ाई से मां ने अंधविश्वास के दायरे को तोड़ दिया। काम कभी भी छोटा बड़ा नहीं होता काका ने सीखाया तो मां ने हर काम को करने की प्रेरणा दी। हाथ से कढ़ाई ,बुनाई, सिलाई, और पाककला के साथ साथ गोबर के कंडे बनाना और मिट्टी के चुल्हे बनाना भी सिखाया। शहर में रहते हुये गोबर से आंगन कैसे लीपा जाता है यह सब बहुत अच्छे से मैं सीख गई।
मां तुम्हारी ममता और प्यार के इस सीमा को तब समझी जब मैं स्वयं मां बनी। मैनें भी अपने बेटे के लिये उसी तरह की गुरु मां बनने का प्रयास जरुर की हूं। कुछ और भी याद आ रहा है मां तुम्हारी वह डांट , हां जब भी स्कूल कालेज से आने में देर हो जाती थी तो भगवान के सामने एक नारियल रख कर प्रार्थना करतीं और बैठक के दरवाजे पर खड़ी हो जाती थी। मेरे आने पर गुस्सा दिखातीं और बात नहीं करती थीं। मैं स्वयं सफाई देते रहती ,चाय पीती पर मां नारियल फोड़ने के बाद खाना खाते समय ही बात करती थी। यह बात तो बहुत साधारण लगती है पर वह चिंता थी कि बेटी पैदल आती जाती है, ब्राम्हण पारा जैसे गुंडो के गढ़ को पार करती है, पता नहीं क्या हो जाये। उस समय यह ब्राम्हणपारा चौक लड़कों का अड्डा हुआ करता था और सत्ती बाजार में दो दादा हुआ करते थे। बैजनाथ पारा में भी कुछ लोग थे।ये तीनों जगह के दादा के बीच आये दिन झगड़ा होता था और चाकूबाजी भी हो जाती थी। वह दौर रहा 1966--1979 के बीच, तब बहुत हड़ताल ,लड़ाई झगड़े हुइ करते थे। मां उस समय भी अपने साहस का परिचय देकर हम लोंगों को साहस देती थी।
एक ही.वाक्य रहता था " अपने रास्ते जाना और अपने रास्ते आना" सिर झुका कर चलना। यह सीख जीवन में बहुत काम आई। सच है हमें किसी से क्यों उलझना चाहिये? दूसरे के मामले में क्यों बोलें। अपने काम से काम रखे।
मां तुम्हारे दी नैतिकता की सीख और काका के दिये जीवन मूल्य ही आज मेरी धरोहर है। शिक्षक तो हमारे अक्षर ज्ञान से लिखे साहित्य को समझाते हैं पर मां तो हमें जीवन जीना सिखाती है। हममें संस्कार डालती है। संस्कार स्कूल की शिक्षा नहीं डालती है। शिक्षा हमें क्या करना चाहिये बताती है तो मां उन सबको करके बताती हैं।

माँ के लिये एक दिन

आज मुझे मेरी मां की बहुत याद आ रही है। 17 सितम्बर 2019 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी का जन्मदिन था। वे बहुत सा काम निपटा कर अपनी माँ से मिलने जाते है। सबसे पहले नर्मदा की पूजा किये उसके बाद माँ से मिलने गये। माँ के साथ खाना खाये। खाने में तुअर दाल, पूरन पुड़ी, देशी चना ,आलू भिंडी की सब्जी के खाना खाये।सादा भोजन और माँ क साथ बहुत कम लोगों को नसीब होता है। परिवार के कोई और लोग सामने नहीं आये। माँ सादगी से मिली और खाकर साथ बैठ कर बेटे के मुंह पोछी। एक मां के लिये बेटा तो बेटा होता है चाहे वह प्रधानमंत्री ही क्यों न हो। मां ने पांच सौ रुपये दिये। पहले एक सौ एक देती थी। मोदी जी बहुत प्यार से पैसा लेकर जेब में रख लेते हैं। यही तो वह आशिर्वाद है जो हमेंशा साथ में रहेगा।

मां बेटे जब मिलते हैं तो दोनों के आँखो भाव पढ़ना चाहिये।माँ की ममता उसके हर अंग से दिखाई दे रही थी। मोदी जी कैसे निश्चिंत अपनी माँ के साथ बैठे थे। माँ कुछ बोल रही थी और वह सुन रहे थे। बीच में अपने रूमाल से बेटे का मुंह भी पोछती थी। मोदी जी छोटे बच्चे की तरह बैठे रहते हैं। मोदी जी के आँखो में माँ के प्रति प्रेम दिखाई देता है। मोदी जी सुरक्षा गार्ड से ज्यादा अपनी मां के पास अपने आप को सुरक्षित महसूस कर रहे थे। सही है माँ के आँचल से ज्यादा सुरक्षित कोई और जगह नहीं है। हर वर्ष मिडिया उनकी फोटो दिखाती है पर मिडिया घर के अंदर नहीं जाती और उनके परिवार के लोगों को नहीं दिखाती। कोई और होता तो अपने परिवार घर सबकों दिखाता।

पूरे देश को चलाने वाला प्रधानमंत्री जो किसी का बेटा भी है, अपनी मां को जन्मदिन पर नहीं भूलता है। माँ से आशीर्वाद लेने जाता है। उसे अपने काम से ज्यादा माँ से मिलना जरुरी लगता है। आज हम अपनी माँ को काम के बाद रखते हैं।

आज हम इतने व्यस्त हो गये हैं कि चालीस किलोमीटर की दूरी भी पार करके माँ का आशीर्वाद लेने नहीं जा सकते है।शहर में एक ही घर में भी माँ के पास एक घंटा नहीं बैठ सकते हैं। आज बचपन और माँ याद आ रही है। पहले न तो केक काटते थे और न पार्टी होती थी। माँ बढ़िया खीर बनाती थी और सब लोग बैठ कर खीर पूड़ी खाते थे। कभी गिफ्ट नहीं मिला और सिर्फ प्यार मिला। उस एक दिन की खुशियां साल भर प्रेरणा देती थी। आज तो जन्मदिन तीज त्योहार में पर छुने की प्रथा भी दम तोड़ रही है। हमारी युवा पीढ़ी अब अंग्रेजी संस्कृति की ओर बढ़ रही है ,केक काटती है और माँ बाप को पप्पी लेती है। वही आज हमारी तीसरी पीढ़ी भी वही कर रही है। आज हमें इन बड़े और सादगी पूर्ण लोगों से कुछ सीखना चाहिये। यादों के पन्ने खुलते जाते हैं जब ऐसी कोई घटना होती है।

चंद्रयान

आज मुझे अपनी डायरी के पुराने पन्ने याद आ रहे हैं। बचपन की कुछ यादें ताजा हो रही हैं। आज भारत का चंद्रयान चांद पर उतरने वाला था। यान जब चांद से सिर्फ 2.1 किलोमीटर दूर था तभी उसका संम्पर्क टूट गया। वह नौ सेकंड के बाद ही उतरने वाला था। यह पूरी तरह से स्वदेशी यान था। इस यान ने पुष्पक विमान की याद दिला दी। हमारी पौराणिक कथाओं में ग्रहों का मानवीकरण है। ये लोग एक ग्रह से दूसरे ग्रह में विचरण करते थे। 47 दिन पहले बहुत ही अरमानों के साथ चंद्रयान -2 भारत से भेजा गया था। यह उस स्थान पर उतरने वाला था जहां अंधेरा रहता है। रोशनी बहुत कम समय के लिये आती है और तापमान माइनस में रहता है। पानी की खोज के लिये गया यान ने हमारा साथ छोड़ दिया। " विक्रम "नाम का यान " प्रज्ञान "नाम की छोटी गाड़ी को छोड़ता और इससे ही पता चलता वहां की मिट्टी ,भूकंप, चट्टानों बारे में। "विक्रम" लैंडर है और "प्रज्ञान" रोवर है।
अंतिम "दहशत के वो पंद्रह मिनट " " 15 मिनट ऑफ टैरर" सभी टी वी के सामने बैठे थे। आज भारत जाग रहा था। पहले चरण में विक्रम तीस किलोमीटर से 7.4 किलोमीटर पर आया। दूसरे चरण में 7.5 से 5 किलोमीटर तक उतरा, तीसरे चरण में 5 किलोमीटर से नीचे उतरते समय सम्पर्क टूट गया। एक बज कर तिरपन मिनट पर उतरने वाला विक्रम एक बज कर इंकावन मिनट पर इसरो से सम्पर्क टूट गया। सभी दुखी थे।पर हमारे पी एम ,नरेंद्र मोदी जी ने् इसरो प्रमुख के सिवन को गले लगा कर बहुत अच्छी बात कही। "जीवन में उतार चढ़ाव आते रहते हैं। यह कोई छोटी उपलब्धी नहीं है। देश आप पर गर्व करता है। आपकी इस मेहनत ने बहुत कुछ सीखाया है। अच्छे के लिये आशा करें। हर हार से हम बहुत कुछ सीख रहे हैं।मैं पूरी तरह आपके साथ हूं। हिम्मत के साथ चलें। आपके पुरुषार्थ से देश फिर से खुशी मनाने लग जायेगा।" यह मिशन सफल होता तो भारत चांद के दक्षिणी ध्रुव पर उतरने वाला पहला देश बन जाता।
रात जागने वाला भारत उदास हो गया।
मुझे 20 जुलाई सन् 1969 का वह दिन याद आ गया जब अपोलो 11 ने चांद पर उतर कर एक रिकार्ड बनाया था। कई असफलता के बाद मानव सहित विमान भेजा गया। बहुत से प्रयोग बंदर और चिंपाजी पर किये गये थे। अंतरराष्ट्रीय समय 20.17.39 बजे चांद पर उतरा था। ये लोग वापस 24 जुलाई को प्रशांत महासागर में उतरे थे। सन् 1969 - 1972 तक छै अपोलो मिशन चांद पर गये उसमें से पांच ही सफल हुये थे। अपोलो 11 में तीन लोग गये थे। नील आर्मस्ट्रांग, कॉलिंस, ऐल्ड्रीन। इसमें से दो लोग नील आर्मस्ट्रांग और ऐल्ड्रीन ही चांद पर उतरे थे और 31 घंटे और 31 मिनट चांद पर रहे। हम लोग स्कूल में पढ़ रहे थे। चांद पर मानव के कदम रखने पर पूरे भारत में छुट्टी दे दी गई थी।
हम लोगों को सिनेमा घर ले जाकर उनको चांद पर चहलकदमी करते हुये दिखाये। मन बहुत खुश हो रहा था जिस चांद को हम देखते रहते हैं उस तक मानव पहुंच गया। उसके बाद चांद पर कोई नहीं गया। भारत का एक प्रयास था कि वहां की मिट्टी, हवा, पानी, भूकम्प का परिक्षण करें। पर चांद अपने को समेटे रखना चाहता था। वरना दो किलोमीटर पहले ही सम्बंध टूटना आश्चर्यजनक घटना है।जो यान 384400 किलोमीटर का रास्ता तय करके चांद की परिक्रमा करने लगी वह दो किलोमीटर पहले कैसे हमसे सम्बंध थोड़ सकती है?बहुत दुख हुआ बचपन में देखी गई नील आर्मस्ट्रांग की चहलकदमी याद आने लगी।

प्रेम और पुरुष

मैं एक दिन बैठ कर पुरानी डायरी देख रही थी जिसमें मुझे "प्रेम और पुरुष " पर लिखा कुछ मिल गया। आप भी पुरानी डायरी के पन्नों को पढ़िये।
" प्रेम एक अलौकिक वरदान है। प्रेम, ममता वातसल्य नारी के पास अपार रुप से होती है परन्तु पुरुष इससे दूर दिखाई देता है। दिखने में नारियल की तरह कठोर दिखने वाला पुरुष अंदर से कच्चे नारियल के भेले की तरह नरम और दिल नारियल के पानी की तरह स्वच्छ साफ मीठा होता है। एक पुरुष में प्रेम देखना हो तो उसके अंदर जाना पड़ता है। नारियल के टूटने से तरल पदार्थ याने मीठा जल बाहर आता हैऔर सबको तृप्त कर देता है।

एक पुरुष के प्रेम को पाने के लिये या देखने के लिये उसके सक्त परत को तोड़ने की जरुरत होती है। पुरुष अपने मुंह से बहुत सी बातें नहीं कहते हैं परन्तु उनकी आँखे कह देती हैं। शब्दों की जरुरत ही नहीं होती है। जब पत्नी दुखी हो तो कंधे पर रखा एक हाथ पत्नी में असीम उर्जा का संचार करता है। आफिस से लौटते समय एक मोंगरे की माला खरीद कर घर पहुंच कर पत्नि के हाथो पर उसे रखता है तो बिना कुछ कहे बहुत कुछ कह देता है। पत्नि शरमाते हुये जब वेणी लेती है तब उसकी झुक नजरें पति की कठोरता को ऐसे तोड़ कर रख देती है कि उसके दिल की निश्छलता मुस्कान से टपकने लगती है। एक पुरूष का निश्छल प्रेम

गोद में बैठी बिटिया जब गालों को छूती है तब वात्सल्य के रुप में प्रेम छलकता है तो बिटिया के गालों पर एक चुम्न अंकित कर देता है। ताली बजाती बिटिया को देख क कठोरता टूट जाती है और प्रेम की धारा बहने लगती है। यह प्रेम की धारा बिटिया की बिदाई पर आँसू बनके टपकने लगती है। पत्नि के विछोह पर भी आँसू गंगा जमना की तरह बहने लगती है परन्तु बाहर की कठोरता उसे जल्द.ही अपने घेरे में ले लेती है। पुरुष अपने प्रेम को हर छण प्रगट नहीं करता है। वह तो ईश्वर की अराधना में चढ़ते फल की तरह कभी कभी ही बाहर आती है। एक पुरुष के प्रेम का प्रशाद विशेष छणों में ही मिलता है। यह एक प्रकृति का दिया उपहार है।" यह पन्ना दो अप्रेल 2011 का है जिसे आज फिर लिखने की जरुरत है।

आज प्रेम की परिभाषा बदल रही है. यह अलौकिक वरदान अब अभिश्राप भी बनते जा रहा है। आज की युवा पीढ़ी शारिरिक सम्बध बनाने के लिये इस पवित्र प्यार का नाटक करते है। यह नाटक और असल में फर्क समझने की भावना अब कमजोर हो रही है। असल और नकल के भेद को समझने की क्षमता को आज शोसल मिडिया के प्रेम ने समाप्त कर दिया है। समय रहेगा तभी तो हम प्रेम को समझेंगे। प्रेम क समझने और महसस करने के लिये पर्याप्त समय चाहिये, मशीनी जीवन नहीं।

बढ़ते कद का रावण

आज मैं शाम को घूमने निकली तो देखी की हमारे घर के पा बहुत बड़ा करीब अस्सी फीट का रावण खड़ा हो रहा है। पूरा बन चुका है पर उसे सजाने का काम चल रहा ह।कागज लपेटे जा रहे थे। मैं खड़े होकर उसे ध्यान से देख रही थी। मुझे लगा कि उसके आँसू टपक रहे हैं।मन से एक सवाल निकला-" कागज के रावण के आँखों में आँसू?"मन से मन की बात होने लगी विचारों के माध्यम से।

रावण ने कहा " हर वर्ष मेरा कद बढ़ाते जा रहे हैं, मेरा पुतला जगह जगह रख रहे हैं। उसे जलाने अब बड़े बड़े नेता आ रहे हैं। मेरा कद बढ़ रहा है तो मुझे मारने वाले का पद बढ़ रहा है। " हां यह सच है तो तुम्हे क्या तकलीफ है मैने कहा तो वह बोल उठा "बहुत तकलीफ है। सैकड़ो साल से मुझे जला रहे हों पर मैं तो बढ़ते ही जा रहा हूं। कभी जल कर मरा हूं या फिर मुझे तुम लोग भूले हो। मैने तो सीता को जब उठाया तभी छूआ था उसके बाद तो मैं सिर्फ बात ही किया हूं। कभी सीता को छुआ नहीं।" सही बोल रहे हो रावण, मैने कहा तो लगा जैसे मैने उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया है।

रावण ने फिर कहा " मुझे मारने.वाला राम तो हो? झूठ, रिश्वत में डूबा व्यक्ति मुझे मार रहा है। अमर्यादित व्यक्ति मुझे मार रहा है। कुछ वर्षो से तो दुराचारी व्यक्ति मुझे मारने आता है तब मैं रो उठता हूं। कलयुग में तो शायद ही कोई राम जैसा हो? रास्ते में चलते ,बस में चढ़ते या सिनेमा हॉल में या फिर मेले में करीब करीब हर पुरुष नारी को गलत नजर से देखता और छुता है। आज तो ब्राम्हण बन भागवत सुनाता रामायण सुनाता संत भी दुराचारी हो गया है। वह मुझे क्या मारेगा? आज बड़े पद में बैठा व्यक्ति और नेता भी बलात्कारी होगया है, क्या उसे हक है मुझे मारने का? पहले अपने आप को देख लें कि वे कितने पानी में हैं फिर मुझे मारें। मुझे र साल मार मार कर जिवित रखे हैं। मारना है तो दुराचारी को मारे बलात्कारी को मारे। इसे तो आज के समय में.सजा भी नहीं मिलती है, उसे क्यों नहीं जिंदा जला देते। मैं तो एक बार में ही मर गया था। आज किसे मार रहें है। रामलीला तो ठीक है। जिसमे रावण प्रतिकात्मक रुप से मर जाता है, उसे बार बार जलाना क्यों?"

रावण के आँसू झरझर झरझर बहने लगे। मै भी सोचने लगी आखिर यह रालणको मारने की प्रथा क्यों शुरु की गई। इसे रामलीला तक ही सीमित रखना था। बार बार रावण का कद बढ़ा कर बलात्कारी को भी बढ़ा रहे हैं।इन बलात्कारियों के पुतले क्यों नहीं? हर साल इन्ही के पुतलों को जलाया जाये। आज फिर से एक बार रामलीला की शुरुआत हो और रालण के पात्र को ही गिर कर मरते दिखाया जाये न कि इस तरह से रावण को मारा जाये।
हमारी कथाये राम ने रावण को मारा तक ही न हो। आज इस कथा को नहीं जानने वाले रावण को सोशल मिडिया में बलात्कारी भी लिख रहे है। आज हमारी जानकारी भी किस गंदी दिशा की ओर जा यही है। आज संजीवनी बूटी किसके लिये लेकर आये थे हनुमान उसका उत्तर नहीं दे पाते हैं। राम लोग कितने भाई है उसे नहीं बता पाते हैं पर यह जरुर जानते है कि रावण ने सीता का हरण किया तो राम ने रावण मार दिया। बस हमारी एख युग की कथा का समापन हो जाता है।
अब भी हम लोग सोच सकते है रावण को जलाये या फिर राम कथा का मंचन कर हर साल बलात्कारी को मारे या जलायें।
चलिये आज के लिये इतना ही काफी है, पुतले के आँसू ने कुछ तो चिंतन करने का विषय दिया।

नव वर्ष

हम लोग बच्चे थे तब नया साल नहीं मनाते थे। इसे इसाई लोग अपने क्रिसमस के साथ मनाते थे।
समय ने करवट ली, वैश्वीकरण का दौर आ गया। विदेशोंं से जींस आया। हिप्पी आये, हम लोग अपनी संस्कृति के साथ विदेशी संस्कृति को मिलाने लगे। जूते चप्पल पहन कर घर के अंदर जाना यहां तक जूते पहन कर सो जाना। बेड टी का चलन शुरु हो गया। दातून और मंजन की जगह पेस्ट ने ले लिया। घर में खाने के लिये टेबल आ गये। लकड़ी के चुल्हे की जगह गैस सिलेंडर आ गया। कोयले की जगह हीटर आ गया और अब इंडक्शन आ गया।

हम हिन्दूस्तान में रहते हैं। हमारा कलेंडर चैत्र माह से शुरु होता है।दिसम्बर में जहां ठंड पड़ती है वहां चैत्र में गूलाबी ठंड होती है। बसंत का आगमन होने लगता है। चारो तरफ फूल खिले रहते हैं और गर्भाधान की प्रक्रिया होने लगती है। बीज बनते है। यह मौसम ठंड में सिकुड़े जीवन में एक उर्जा भर देती है। काम जागने लगता है। सबसे बड़ी बात इस महिने में ही नवरात्र पड़ता है। सभी लोग देवी अराधना में लग जाते हैं। ईश्वर की अराधना करते है। इस एक माह में देश के सभी राज्यों में कोई न कोई त्यौहार मनाया जाता है। पूरे हिन्दूस्तान में खुशियां फैली रहती है। प्रकृति, जीव जंतु के साथ साथ मान् भी खुशियां मनाता है। जीवन के लिये जरुरी राशन जो फसलों के रूप में खड़ी रहती है उसकी कटाई मिंजाई पूरी हो जाती है। किसान अपनी दूसरी फसल भी लेने लगता है। चारो तरफ खुशियां फैली रहती है।
हम लोग आज एक जनवरी को नया साल मनाने लगे हैं। 31 तारीख को बारह बजे के पहले ही नया साल मना लेते हैं।रात को जागते हैं और पार्टी करते हैं। पता नह़ी क्या क्या खाते पीते हैं। बारह बजे के बाद मीठाई खा कर नये साल की शुरुआत करते हैं।
दूसरे दिन सूरज सिर पर आकर खड़ा हो जाता है तब उठते हैं।हमने तो रात को ही मीठाई खाकर नया साल मना लिया था। सुबह से क्या मतलब?
हिंदू कलेंडर में सुबह की शुरुआत सूर्योदय से होती है। रात को कुछ नहीं होता है। सुबह हमारी इंतजार में शाम में बदलने लगती है पर हम क्या कर रहे है।हम तो सो रहे थे अब उठ कर घूमने चले जाते हैं। मंदिर ,पर्यटन स्थल ,सिनेमा या फिर दोस्तों से मिलने चले जाते है। कुछ लोग पार्टी करते हैं।
चैत्र मे नये साल की शुरुआत दान पुण्य , पूजा पाठ में बीत जाता है। सात्विकता दिखाई देती है।
मैं अपनी पुरानी डायरी के पन्ने देख रही थी तब पता चला की मेरी मां खीर बनाती थी। रबड़ी खीर जलेबी अनरसा खाकर हम लोग नया साल मनाते थे। नइ बात या खुशी की शुरुआत हम लोग खीर से करते थे। अब तो होटल के खाने से ही खुशी जाहिर करते हैं। खीर तो अब बहुत कम ही बनता है। मेहमान के आने पर भी पनीर बनाते हैं खीर और हमारी संस्कृति के भोजन अब बिदाई ले रही है।रस मलाई ,गुलाबजामुन ही खा रहे हैं। नये साल के नाम पर हम अपनी संस्कृति को पीछे छोड़ रहे हैं हम अपना कलेंडर भूल रहे हैं।यह तो शादी और कुंडली बनाने के ही काम आता है। बच्चे का नाम रखना हो तो हिंदी कलेंडर याद आता है पर नव वर्ष के समय हम हंगामें में खो जाते हैं।

दीदी का मातृत्व भरा प्यार

आज दादा मुनी का जन्म दिन है। जब किशोर कुमार एक साल के थे तब अशोक कुमार.पढ़ाई करने विदेश चले गये। किशोर कुमार चार साल के थे तब वे पढ़ कर वापस आये। अशोक कुमार आये तो उसकी मां ने उन्हें बहुत ही प्यार से खीर खाने के लिये दिया। किशोर कुमार ने पूछा की "ये कौन है?" माँ ने कहा कि ये तुम्हारे बड़े भाई हैं। किशोर कुमार उनके पैरों से लिपट कर " दाना मुनी" कहा तब से अशोक कुमार सबके दादा मुनी बन गये। दादा मुनी ने ही अपने भाई को क्ला के क्षेत्र में आगे बढ़ाया।
मै भी उही किशोर कुमार की जगह अपने आप को देखती हूं जब मेरे से ग्यारह बारह साल बड़ी बहन मुझे ऊंगली पकड़ कर चलना सिखाई थी।किस्से कहानियों में माँ के साथ खोई रहती थी तो दीदी मुझे उससे आगे ले जाती थी। परी लोक में ,कल्पना की दुनिया में विचरण कराती थी। छोटी छोटी कहानियां तो मैं सुनाने.लगी पर कविता तो मेरे लिये बहुत ही कठिन था। दीदी ने मुझे आसमान दिखा कर बताया कि देखो और उस पर लिखो।.आसमान का नीला ,पीला , भूरा ,कपसिले तो कभी दूधिया बादल अपनी आकृतियों से मुझे आकर्षित करने लगे फिर क्या था बनने लगी कविता।आसमान में उड़ते पक्षी तो कभी पैड़ो पर बैठती तितलियि यही मेरे कविता के विषय रहे। ऊंगली पकड़ कर चलना सीखी थी तो साहित्य की दुनिया में भी मैने दीदी की ऊ़गली पकड़ कर ही आ गई। फिर क्या था डरते सहमत अपनी कल्पना लोक की परियों को मैने शब्द दिये।प्रकृति को मैने अपने में आत्मसात कर लिया और लिखने लगी संवेदना से भरी कवितायें। मैं पत्ती में हूं, मैं फूल में हूं , मैं ही तो वृक्ष में हूं। नदी तालाब सब में मैं हूं। मुझे दिखने लगी और महसूस होने.लगी उनकी खुशी ,उनका दर्द, उनकी ईच्छायें।
आज हम दोनों बहने लिखती हैं कला और साहित्य में सबकी अपनी जगह है। दाना मुनी अपनी जगह थे तो उसी प्रखार दीदी भी अपनी जगह है।किशोर कुमार अपनी जगह थे तो उसी प्रकार मैं अपनी जगह पर हूं।किसी की किसी से कोई तुलना ही नहीं है।सभी का क्षेत्र एक होते हुरे भी अलग अलग है।सभी का व्यक्तित्व अलग अलग होता है वैसे ही हमारा भी व्यक्तित्व अलग अलग है। किही ने कहा कि आप दोनों बहने लता मंगेशकर.और आशा भोसले की तरह हैं। नहीं हम.लोग लता आशा हर्गिज नहीं हैं। उनमें तुलना होती है।वे स्वयं भी किसी के आगे बढ़ने पर परेशान हो जाती हैं पर दादा मुनी और किशोर कुमार के बीच ऐसा बिल्कुल नहीं था।
मेरी दीदी डा. सत्यभामा आड़िल ,शिक्षाविद हैं, लेखिका है। उन्होने पैतिस चालिस लोगों को शोध करवाया है। उन्होने समाज के उत्थान के लिये बहुत काम किया है। मै भी व्याख्याता रही ह़ूँ। मुझे आर्ट में रुचि है बहुत सी कलायें जानती हें। मैं भी लेखन करती हूं ,बहुत सी पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं पर हम दोनों बहन बिल्कुल अलग है।
मैं शायद अपनी दीदी के लेखकीय क्षेत्र में चली गाई हूं।ऊन्होने हाथ पकड़ कर चलना सीखाया था न तो मैं आज तक ऊ़गली पकड़ कर ही चल रही हूं लग रहा है। किसी को भी हमारी तुलना नहीं करनी चाहिये।
आज दादा मुनी के जन्मदिन पर उनको बहुत बहुत बधाई। उन्होने अपे भाइयों को अपने बच्चों की तरह प्यार किया करते थे। कभी अभिनय में उनके साथ प्रतियोगी नहीं बने। आज दीदी भी दिशा देती है मेरी प्रतियोगी नहीं है। फिर हमारी तुलना कैसी?

तीसरी बार की पुरी यात्रा

मैं पुरी पहिली बार 1980 में गई थी। दूसरी बार अपूर्व को.लेकर 1996 में गई थी। तीसरी बार जाने की बहुत इच्छा हो रही थी पर कोई साथ नहीं मिल रहा था। कई लोगों को बोल रही थी की पुरी जाना तो मुझे ले जाना पर किसी का साथ नहीं हो पा रहा था। अपूर्व जब पिछले साल पुरी गया तो मै भी साथ जाने वाली थी। मेरी सास ने लौह स्तम्भ के सामने बोल दिया था की जब भी बच्चा होगा तो उसे लेकर पूरी आयेंगे। बच्चा भी बारह वर्ष के बाद हुआ तो उसे 1996 में ले गये थे। अब शादी हो गई तब सोची की बहु को लेखक आशीर्वाद के लिये जाऊंगी पर साथ जाना नहीं हो पाया।
बीस तारीख को अचानक इंदु का फोन आया " दीदी पुरी चलोगे, कल चार बजे निकलेंगे।" अचानक चौबीस साल के बाद पूरी जाने के लिये ऑफर आ गया। मैं पहले तो नहीं बोली फिर जाने की सहमती दे दी।शाम को बेटे बहु को बताई तो अपूर्व तो खुशी से उछल पड़ा और बोला" अच्छा है बहुत दिनों से सोच रहे थे अब मामी बोल रही तो जाओ।" वह बैग तैयार कर दिया। दूसरे दिन महाशिवरात्रि थी। मैं रात के लिये रोटी सब्जी रख ली।हम लोग साढ़े तीन बजे ही रेल्वे स्टेशन पहुंच गये। अब तो पुरानी डायरी के पन्ने दिखने लगे और उसे पढ़ने लगी। बहुत दूर से दिखता समुद्र, शाम को लगा बाजार, खुला सा मंदिर, अंदर का परिसर भी खाली खाली। यह हमारा हनीमून था, सास ससुर और ननंद के साथ,हा हा हा हा।
आराम से पंडो से बचते दर्शन करके कल्प वृक्ष पर धागा बांध कर आ गये। खुला सा परिसर था। जगन्नाथ भगवान के मंदिर के सामने चौड़ा सा खुला रास्ता था। भाई बहु औ भतीजी का परिवार भी आ गया। हम लोग इलेक्ट्रिक गाड़ी में बैठ कर पांच नम्बर के प्लेटफार्म पर गये। रेल भी समय पर आ गई। हम लोग बैठ गये और गप्प मारते, कुछ कुछ खाते हुये पुरी पहुंच गये।
हम लोग सुबह नौ बजे पहुंचे तभी रेल में ही एक गाइड मिल गया जिससे हमने दो दिन घूमने का पैकेज ले लिया। वही हमें अपनी गाड़ी से होटल तक छोड़ दिया। पांच सात मिनट का रास्ता था। हम लोग तैयार होकर ग्यारह बजे नीचे आ गये। टेक्सी का रास्ता देख रहे थे।

हम लोग रास्ता देखते रहे और होटल में ही रुके एक दम्पत्ती बाहर खड़े थे उसे टेक्सी वाला लेकर चला गया। उसकी टेक्सी खड़ी थी। एक घंटे क बाद गलत फहमी का खुलासा हुआ। हम लोग उनकी टैक्सी में बैठ कर निकले। एक घंटे के बाद वह टेक्सी हमें मिली। वे लोग रास्ते में रूके थे। हम लोग गाड़ी बदल कर आगे बढ़े। करीब एक घंटे में चील्खा झील पहुंच गये।खाना खाकर बोटिंग किये। सुरक्षा कवच पहन कर गये थे, डॉल्फिन देखने जा रहे थे। उसके लिये दो घंटे का सफर था। पानी में तरह तरह के टापू देखते हुये आगे बढ़ रहे थे कि नाविक ने एक टापू पर रोक दिया। उस

टापू पर लाल केकड़े दिखाने एक व्यक्ति आया। हम लोग देखकर खुश हो गये। छोटे छोटे मरे हुये बंद सीप,कोरल लेकर आ गया। हमारे मना करने के बाद भी फोड़ने लगा ,बोलने लगा मोती देखो भले मत खरीदना। पांच मोती निकाला, मैं विडियो भी तैयार की। पांच सौ की मोती बोलकर दो सौ में उतर गया। उसके बाद ओपेल निकाला जिसकी कीमत पांच हजार बोल कर पंद्रह सौ में उतर गया। फिर.एक मूंगा निकाला एक हजार बोलन लगा। अब हम लोग सोचने लगे कि इतने बढ़िया आकार का तराशा हुआ नग नहीं निकल सकता। वहां से बहुत से सवाल लेकर डॉल्फिन देखने पहुंचे बहुत देर के बाद तीन चार बार पूंछ दिखी उसके बाद दो डॉल्फिन की पीठ दिखी। सपनो पर रोक लग गई। तब मुझे पुराने चील्खा झील की याद आई जहां से हम लोग एक टापू पर काली माई के मंदिर में पूजा करने गये थे। नाविक बताया की तूफान के कारण वह पूरी तरह से नष्ट हो गया है। हम लोग वापस आ गये। आने के बाद लगा की पुरी से चार घंटा आने जाने में, समुद्र आने जाने में चार घंटा याने आठ घंटे में कुछ भी मजा नहीं आया। कुछ लोग स्टोन में दो चार हजार लुटा भी दिये।

दूसरे दिन भुनेश्वर गये। पहले " चंद्रभागा " नदी या कहें समुद्र का किनारा देखे। यहां पर छत्तीसगढ़ की महानदी आकर समुद्र में मिलती है। बहुत ही सुंदर समुद्र किनारा है।पहले नदीआते हुये और मिलते हुये दिखाते थे।जगह बदल गई है लगता है। यहां से कोणार्क गये वह भी बहुत बदल गया है। तीसरी बर देखने पर लगा कि इसका व्यवसायी करण हो चुका है। मैं बैठी रही देखने को कुछ नहीं था। बार बार उन मुर्तियों को देखने का कोई मतलब नहीं था।
दाहिने तरफ के चक्के के साथ फोटो लेकर वापस आ गये। बाहर का बाजार तो सब जगह एक जैसे ही रहा, पर यहां पिपली वर्क मिल रहा था। यहां से नंदनकानन गये।यहां पर इतनी दुकाने और इतनी भीड़ से अच्छा जंगल सफारी है। वहां का नंदनकानन अब देखने लायक नहीं रह गया है। तूफान में वह भी खत्म हो चुका है।1980 का कानन याद आ गया, 1996 का नंदनकानन याद आ गया। वह पन्ने तो अब यादों के पन्ने बन गये हैं। बाहर बहुत सी दुकाने लगी थी जहां काजू और खसखस 400₹ किलो में मिल रहा था। दागदार काजू लेने के बाद लगा यह भी धोखा है।खंड
गिरी उदय गिरी छोड़ दिये। यहां से हम लोग साक्षी गोपाल देखने चले गये क्योंकि यह पुरी से 15 किलोमीटर पहले ही है।हम लोग पंडों से बिना बात किये ही दर्शन करके बाहर आ गये।पिछले दो बार आये थे तब यह बंद ही रहता था। कहा जाता है कि इसके दर्शन करना चाहिये यही जगन्नाथ भगवान के दर्शन के साक्षी रहत हैं। यहां नहीं जा पाये तो छत्तीसगढ़ के राजिम के साक्षी गोपाल के दर्शन करना चाहिये।

होटल में जाकर आराम करके समुद्र किनारा देखने चले गये।रात को लहरें बहुत ही सुदर लग रही थी। रात बारह बजे के खरीब म लोग वापस ये।बाजार में तरह तरह की चीजें बिक रही थी यह सब पहले की तरह ही है। बस किनारे में बहुत से होटल बन गये हैं। मेरी डायरी का यह पन्ना नहीं बदला है। अच्छा लगा कि कुछ तो पहले की तरह है।

यहां पर मोती, पन्ना, डायमंड, पुखराज, माणिक, ओपेल याने नवरत्न, मूंगा सब मिलता है। दो हजारपांच ,दस हजार स शुरू होता है,भाव गिराते गिराते बीस रुपये में दे देते है। इसका इतना बड़ा धंधा है की एक दिन में पांच हजार से दस हजार तक कमा लेते हैं। यहां से धोखा खाये लोग किसी को नहीं बताते हैं कि ये सब मत.खरीदना। जब बात खुलतीहै तो मजा लेते हैं की आप भी बुद्धु बने और आप भी बन गये।

रात को लौटते हुये खाना खाये। पहले दिन का अनुभव था कि यहां पर दस बजे तक सब होटल बंद हो जाते हैं। हमारे होटल के पास ही एक रेस्टोरेंट था जहां ग्यारह बजे तक खाना मिलता था वहां पर खाना खाये। मजा आ गया , एक प्लेट बिरयानी या फिर जीरा फ्राई को दो लोग खा सकते है या तीन लोग भी खा सकते हैं। वहां पर चांवल भर भर कर देते हैं। सभी जगह सब्जी दाल सब बढ़िया मिल रहा था।पुरानी डायरी के पन्ने याद आनू लगे जब चांवल तो ऐषा ह मिलता था पर दाल सब्जी में स्वाद नहीं रहता था।टूरिस्ट अच्छे खाने के लिये तरसता था।अच्छे होटल कहीं कहीं ही दिखते थे। अब रोटियां भी बढ़ियामिलती है, तंदूरी भी मिलती है। समुद्र के किनारे भी आमलेट ,मछली और रोटी सब्जी मिल रही थी। खाने की कमी नहीं थी।

हम लोग दूसरे दिन दस बजे जगन्नाथ मंदिर गये। वहां भी बहुत से लोग फुटपाथ पर सामान बेच रहे थे। रथ यात्रा के दिन दिखने वाला रास्ता फुटपाथ की दुकानों से भरा था। लोहे की रैलिंग लगी थी कि लोग लाइन से आयें। हम लोग एक गाइड करके पश्चिम के दरवाजे से गये। मुख्य मंदिर के बाहर के सभी मंदिर देख लिये। चिटियों की तरह लोग भरे थे। वहां दो मूर्ति पहले नहीं थी, एक साक्षी गोपाल और दूसरा बट गणेश। बट वृक्ष जिसे कल्प वृक्ष कहते हैं वह सन् 1980 में खुला था, उसमे मन्नत के लिये धागे बांधते थे। एक रूपये में खरीदते थे। 1996 में भी वह खुला ही था पर वहां पर एक कमरा बन गया है जहां पंडित अपनी दुकान खोल कर बैठा है। धागा बांधने के लिये 365₹ ले रहा है। उसकी बाहरी दीवार पर बट की डगाल के नीचे एक गणेश जी की स्थापन कर दी गई है । बट के नीचे है इस कारण " बट गणेश " जी हैं। यहां पर साक्षी गोपाल हैं तो लोग दूसरे साक्षी गोपाल के दर्शन के लिये क्यों जाते हैं?

हम लोगों को एक दरवाजे से अंदर दर्शन के लिये ले गया और भीड़ के साथ खड़ा कर दिया। बहुत धक्का खाते हम लोग दर्शन करते निकल गये। मुझे तो बस भगवान की एक आँख ही दिखाई दी। जगह जगह पाइप लगे है तो अंदर तक तीन लोगों की लाइन ही रखते तो सबको भगवान जी दिखते। मन की आँखो से देखते हुये हम लोग फिर समुद्र किनारे पहुंच गये।आटो से पुरी होटल के सामने तक गये ,वह 150₹ लिया। वहां पर दो बजे तक बैठे रहे।मैं तो समुद के लहरों के पास बैठ गई और कमर तक पानी का मजा लेते रही। पिछले दो बार में मैं बस लहरों को घुटने तक ही ली थी। एक घंटे पानी का मजा लेकर जल वरुण देवता को प्रणाम कर बाहर आई। फिर हम लोग अपने होटल की तरफ चले गये। रास्ते मे खाना खाये।

हमारी रेल दो घंटे लेट थी तो हम लोग रात का खाना पैक करा कर शाम सात बजे होटल से निकले। प्लेटफार्म पांच पर पुरी दुर्ग एक्सप्रेस खड़ी थी।हम लो ए सी टू में बैठ गये। मैं मेरी भाई बहु इंदु, भतीजी शिखा कश्यप और दामाद नवीन को एक ही कूपा मिल गया था। भतीजी नातिन चेरी के साथ बातें करते हम लोग दूसरे दिन रायपुर पहुंच गये।एक सुखद यात्रा तो रही पर तीर्थ पर या पर्यटन स्थल पर कितनी लूट होती है इसका उदाहरण है पुरी। आस्था के नाम कर जगन्नाथ की कसम खाकर भी लोग नकली सामान बेच देते हैं। चालीस साल में बहुत कुछ बदल गया है। दिल से मैने अपने छोटे भाई रवि को धन्यवाद दिया कि उसके न जा पाने के कारण मेरी तीसरी बार पुरी जाने की इच्छा पूरी हो गई। कहानी का अंत ऐसे ही नहीं होता है , तो कैसे? आप लोग भी सोशल मिडिया के कारण भूल गये, चलिये याद दिलाती हूं। हमारी दादी नानी कहानी के अंत में कहती है की " जैसे उसकी इच्छा पूरी हुई वैसी सबकी इच्छा पूरी हो" भाई की इच्छा भी जल्द ही भगवान पूरी करे।

मैं डायरी के इन पन्नों को आपके लिये भेज रही हूं। आप लोग " पुरी" जायें तो ऐसे ठगों से दूर रहें, जो खरीदना है अपने शहर में खरीदें।

कोरोना एक संकेत

आज कोरोना वायरस की महामारी फैली हुई है। इसके लिये पूरा विश्व काम कर रहा है। करेगा ही सोशल मिडिया है जो एक सेकेंड में किसी भी समाचार को पूरे विश्व में पहुंचा देता है। सबको अपने जिन बचाने के लिये कुछ तो करन पड़ता है। कोरोना वायरस चीन का आयातित है। चीन से तो सालों से सस्ती चीजें आ रही थी। यहां तक की हमारे पूजा के सामान, दीपावली के सजावट के सामान होली के रंग भी वहीं.से आते हैं। सस्ता होने के कारण लोग यही खरीदते हैं। हमारे यहां का सामान रखा रहता है।
हमारे देश से अलग खानपान होने के कारण भी चीन को जाना जाता है। मांसाहारी हैं चीन के लोग, ये लोग पके मांस के साथ कच्चा मांस भी खाते हैं। चमगादड़ का सूप और सांप के खाने से कोरोना फैल गया। बहुत ही तेजी से फैलने लगा। यह दूसरे देश तक पहुंच गया। सभी जगहों में मांस खानि बंद कर दिये।अंडा भी बंद हो गया। यह छूने से भी फैलता है तो लोगों ने हाथ मिलाना बद कर दिया। उस समय भारत सबसे आगे रहा क्योंकि अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प ने सबको हाथ जोड़ कर नमस्ते करना शुरु कर दिया। विश्व में भारत की धाक तो जम गई पर भारत की संस्कृति को सब जानने और पहचानने लगे।
कोरोना में सूखी खांसी और बुखार रहता है साथ में सांस लेने में तकलीफ भी होती है। इसके रोकथाम के लिये कोई दवाई भी नहीं है और न कोई टीका है। बस सब जगह को किटाणुरहित करना है ,अपना हाथ हर दो घंटे में धोते रहना है। इसके 245850 मामले विश्व में सामने आये हैं जिसमें से 10047 लोगों की मौत हो गई है। भारत में भी चार केस आये हैं। जब भी संक्रमित व्यक्ति मिलता है उसे आयसोलेशन में 15 दिन तक रखा जाता है। दो बार उसकी जांच होती है। नये सामानों के साथ कई अस्पताल के कमरे तैयार किये गये हैं। आज भी इसक लिये दवाई खोज रहे हैं।
आसाढ़ के महिने में बीमारियां ज्मादा फैलती है और भरी गर्मी में भी। मलेरिया ,फ्लू और हैजा ही फैला करता था।मुझ वह दिन आज याद आ रहे हैं जब हैजा फैला करता था और माता फैलती थी तब एक जिले से दूसरे जिले में जाना मना रहता था।
आज से पचास साल पहले तक किसी भी बीमारी की महामारी फैलती थी तो दवाई तो रहती थी, बचाव का टीका भी लगता था। हम लोग कई बार रायपुर और दुर्ग के बीच बहने वाली नदी के पहले टीका लगवाये हैं। उसके बाद एक पर्ची मिलती थी उसे नदी के उस पार दिखाते थे। उसके बाद ही दूसरे शहर में जा सकते थे। सामान भी लाना ले जाना मना रहता था, सामान याने धान चना गेहूं सब्जियां।
तब और अब में बहुत अंतर आ गया है। आज सोशल मिडिया के कारण कोई भी समाचार एक सेकंड में पूरे विश्व में फैल जाती है।
इस कोरोना का समाचार भी फैल गया पर इसका बचाव नहीं है। इसे 15 दिन के लिये अलग रखा जाता है और किटाणुरहित करते रहते हैं। अब मलेरिया की दवाई कारगर साबित हो रही है। हमारे यहां जगन्नाथ भगवान आसाढ़ में बीमार पड़ जाते हैं। इनको पंद्रह दिन अलग रखा जाता है।उनके दर्शन नहीं होते हैं। भोग में काढ़ा चढ़ाते हैं। यही बांटा जाता है। इसका मतलब यही है किभारत में इन सबकी दवाई तो है ही और सावधानी भी है।आज का पंद्रह दिन का आयसोलेशन जगन्नाथ भगवान की तरह ही लग रहा है। शायद यह काढ़ा ही इस बीमारी का इलाज हो। भारत में आज सब मंदिर बंद हो गये हैं भीड़ से बीमारी फैलती है यह बात सबको समझ में आ गई है। झाड़ फूक और गांव बांधने वाले नजर नहीं आ रहे हैं। न तो पजा पाठ तंत्र मंत्र भी हम सबसे दूर है। बल्कि मंदिर बंद हो गये। जागृति बहुत आ गई है। भारत आज सबका अगुवा बनने जा रहा है। सभी के चेहरे पर कोरोना के भय के साथ खुशी भी है।

प्रकृति अपना संतुलन बना लेती है। मनुष्य स्वार्थी हो रहा है। अपने स्वार्थ के लिये बड़े बड़े पेड़ काट रहा है। खेतों पर कांक्रिट के जंगल बन रह हैं। मानव जनसंख्या बढ़ रही है। जीवों की संख्या कम हो रही है। जीवों में कई प्रजातियां लुप्त हो रही हैं। तरह तरह की बीमारियां हो रही है। बाढ़ आ रही है, सुनामी का प्रकोप भी लोगों ने झेला है। कहीं सूखा कहीं वर्षा , असमय बारीश और ओले गिर रहे हैं। ग्लेशियर पिघल रहे हैं इन सारी बातों से यही पता चलता है कि प्रकृति अपना कोप दिखा रही है। भूकम्प से हजार जाने चली जाती हैं। इन सबसे सैकड़ो जान तो जा रही है, पौधों और जीवों की प्रजातियां भी समाप्त हो रही है। यह कोरोना वायरस भी इसी का एक हिस्सा है।आज मानव मांसाहारी से दूर हो रहा है।अब लोगों को समझ रहा है कि पर्यावरण का संतुलन बिगड़ रहा है। अभी तक बरीश होना और कोरोना का फैसला यह भी संकेत दे रहा है कि भी और भी जाने जायेंगी। प्रकृति का कोप बाकी है।

कुछ हसीन पल

कुछ हसीन पल से आप लोग सोच रहे होंगें की कौन सा हसीन पल? जीवन में तो बहुत से हसीन पल है।सही बात है। मैं बचपन के उस हसीन पल की बात कर रही हूं जब सबको गर्मी की छुट्टियों का इंतजार रहता था। छुट्टी में सब गांव जाते थे या फिर अपने मामा के गांव जाते थे। मैं भी अपने मामा के गांव जाती थी। मेरे बराबर उम्र की मेरे मामा की बेटी थी। उससे छोटी भी एक बहन थी, हम लोग बहुत मजे करते थे। बेर खाना ,ईमली का लाटा बना कर खाना। बासी के साथ लाल मिर्च और लहसुन की चटनी खाना। कनकी का पेज पीना और दोपहर कर सोकर उठे तब बोरे खाना।

लड़कियों को बांस की काड़ियों में रंग बिरंगा धागा भर कर पंखा बनाना सिखाते थे तो लड़के गिल्ली डंडा खेलते थे। गांव में गर्मियों में एक काम और करते थे, बेर को मूसर से कूट कर पाऊडर बनाते थे। गुठली अलग हो जाती थी। पाऊडर को नमक मिर्च डाल के थोड़ा और कुटतठिया बनाते थे। गुठली को मैं रखती थी और दोपहर भर बैठ कर गुठली को फोड़कर चिरौंजी निकालती थी। शाम को लोटे में ठंडा पानी लेकर उसमें नमक डाल कर चिरौंजी को डालकर शरबत बनाते थे। पीते समय जब चिरौंजी आती थी तो उसे चबाते थे और नमक वाला पानी पीते थे। " यमी यमी" उसका स्वाद आज भी जीभ में हैं।

अब आती है इमली के लाटा बनाने की बात। हम लोग ईमली को फोड़ कर छिलका अलग करते थे। यह सब खेलते खेलते करते थे। फिर उसके बीज निकलते थे। उसके बाद का काम माँ करे या फिर मामी करे। उसको कूट कर उसमें नमक मिर्च और थोड़ा सा गुड़ डालकर लाटा बनाती थी। बांस की छोटी छोटी लकड़ी में लॉलीपाप की तरह चिपका देते थे। लिखते हुये भी मुंह में पानी आ रहा है। ईमली की चटनी के साथ कभी कभी बोरे भी खाते थे। इस लाटा को चाटते हुये घूमते रहते थे। दोपहर को तालाब चले जाते थे तो आम के पेड़ से आम भी तोड़ कर ले आते थे। पानी में खेलने का मजा ही कुछ और है। यह सब छूटते चला गया पर गांव में रहने वाले अब भी मजे लेते हैं।अब

अब गांव में भी टी वी आ गया है। सबके पास मोबाइल हो गया है। गांव के बियारा में अब राचर नहीं गेट लग गया है। अब ट्रेक्टर से बोवाई और कटाई ,मिंजाई भी हो जाती है। अब धान ओसाने का दृश्य बहुत कम देखने में आता है।दौरी में मिंजाई भी कम जगहों पर होता है। शहरीकरण ने बहुत कुछ बदल दिया है। इसके साथ ही साथ नये अविष्कार के साथ साथ वैश्विकरण ने खान पान ही बदल दिया है।

आज वह बचपन लौट कर नहीं आ सकता। वह खानपान और रहनसहन भी नहीं दिखाई देता है। हमने बचपन में जो जीवन जिया है वह अब जी नहीं सकते। हमने विकास के नाम पर विदेशी जीवन शैली को अपना रहे हैं। आज हम च्विंगम, टॉफी, कुरकुरे, चिप्स, कैडबरीस अपने बच्चों को देते हैं। हाथ में मोबाइल हैं खाने में पिज्जा, मोमोस, चाऊमीन है। आज ईमली बाजार से लाते हैं तो पानी पुरी के लिये। उसका लाटा तो बना नहीं सकते तो बच्चे कहां से देखेंगे।इसका मजा तो बाजार से लिये टॉफी में मिल जाता है। कच्ची ईमली ,चटपटी ईमली के नाम से भी लाटा मिलना है पर हाथ से बना कर खाने का अपना मजा था। ईमली भी घर की ही रहती थी। बेर की मुठिया आज भी वैसी ही है। मैं राजिम गई थी तो वहां एक गुजराती परिवार के यहां गये थे। उसने बहुत से नाश्ते के साथ बेर की चपटी चपटी एक रूपये के सिक्के के आकार की मुठिया लाकर.दी। मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि इतना बढ़िया साफ सुधरा बेर की टिक्की मिल रही है तो उसने करीब बीस मेरे लिये रख दी। आज बेर भी बाजार से खरीद कर लाते हैं वह भी मीठा नहीं रहा तो मजा नहीं आता है। फिर गुठली भी कितनी निकलेगी? जितनी भी गुठली निकले मैं उसे फोड़कर उसकी चिरौंजी खाती ही हूं। गांव में बड़े बड़े बेल तोड़कर लाते थे तो उसे भी दोपहर को खाते थे और उसकी खोटली से इक्कीस बार पानी पीते थे। कुछ बड़े हुये तो यह सब अंधविश्वास सा लगने लगा। बाद में पता चला कि बेल खाने के बाद एक गिलास पानी पीना ही चाहिये क्योंकि बेल पेट में जाकर फूलता है तो उसे पानी की जरुरत होती है। हमारे बुजुर्ग इस बात को जानते थे तभी तो जितना बड़ा बेल का टुकड़ा खाथे थे उसकी खोतली में ही इक्कीस बार पानी पीते थे।

गर्मी में खोइला भी बहुत खाते थे। सेम, कद्दू, , भटा, चना भाजी, पटवा भाजी, जिमिकांदा खाते थे। समय ने तो बदल दिया इसकी जगह हरी सब्जियों ने ले लिया। अभी कोरोना की महामारी फैलने के कारण 21 दिन का लॉकडाऊन हुआ था तब सबको ये सूखी सब्जियां याद आ रही थी। सच है पुराने खानपान पौष्टिक तो हैं ही पर बदलते समय दिखाई नहीं देते हैं। कभी बाड़ी में सब्जी न हो तो सूखी सब्जियां काम आती थी।

पानी ठंडा करने का अनोखा तरीखा भी था। हम लोग एक एक लोटा अपने लिये रख लेते थे। खपरे वाला पटाव का मकान होता था। हम लोग लोटे में पानी भरकर उसके मुंह में कपड़ा ढक कर उलटा कर देते थे और उसे छानही की लकड़ी पर बांध देते थे। लोटा उल्टा लटका रहता था। एक घंटे के बाद पानी एकदम हो जाता था। उसे दोपहर को पीते थे और बचे पानी का शरबत बना कर पीते थे। शाम को और पानी टांग देते थे। इस पानी को रात को पीते थे। ये सब बातें आज याद आ रही है। आज बच्चों के खाने का तरीका बदल गया है पर उस स्वाद को जरुर लेत है जो खट्टी इमली के रुप में मिलती है।ठंडे पानी के लिये फ्रीज है।सूखी सब्जियों का स्वाद नही लिया है पर चना जरुर खाते हैं।
आज घूमने के लिये गार्डन है। पहले घूमने गाँव जाते थे तो आम के बगीचे,नहर और तालाब का मजा लेते थे। मामी नानी के हाथ का बना तरह तरह की चीजें खाया करते थे।आज तो किसी के घर रहने ही नहीं जाते हैं।
आज बच्चे मोबाइल और टी वी में बंध कर रह गये हैं।मिकी माऊस, डोलाल्ड डक की पुस्तकें पढ़ते थे उसे आज के बच्चे टी वी पर मोबाइल पर देख रहे हैं। पहले इंसान इंसान से जुड़ा रहता था पर आज घर में चार.लोग हैं तो सबके बीच एक दूरी रहती है।एक कमरे में बैठ कर भी एक दूसरे से कोई सम्बंध नहीं रहता है। अकेले बैठे बैठे उस सुनहरे पल को सिर्फ याद कर सकते है पर उसमें जी नहीं सकते है।

मातृभाषा में शिक्षा

26 को संविधान बना था, जिसमें मातृभाषा में शिक्षा देनी चाहिये यह संविधान है। छत्तीसगढ़ राज्य बना एक नवम्बर सन् 2000 में, उस समय छत्तीसगढ़ी भाषा को माध्यम बनाने के लिये कोई आदेश.नहीं निकला। राजभाषा आयोग बना तो इसका उद्देश्य था छत्तीसगढ़ी भाषा का प्रचार प्रसार करना परन्तु यह भी पुस्तक प्रकाशन और साल में दो कार्यक्रम तक ही सिमटा रहा। कार्यक्रम में भी विषयों की कमी झलकती रही। छत्तीसगढ़ी भाषा के लिये हर कक्षा में हिंदी के साथ चार छत्तीसगढ़ी के पाठ रख दिया गया। यह पाठ भी ठीक से पढ़ाया नहीं जा रहा है इसका कारण है बहुत से का छत्तीसगढ़ी नहीं समझना।छत्तीसगढ़ में सभी राज्य के लोग आकर बस गये हैं ,कुछ व्यापार करने के लिये आये हैं तो कुछ लोग सिर्फ नौकरी करने आये हैं। जो व्यापार के लोग आये हैं वे तो छत्तीसगढ़ी सीख गये क्योंकि यह उनकी जरुरत है पर जो नौकरी करने आये हैं वे छत्तीसगढ़ी नहीं सीखना चाहते है।
बहुत से आंदोलन करके छत्तीसगढ़ी भाषा के माध्यम की मांग कर रहे है। नंदकिशोर शुक्ला जी संविधान की कापी लेकर मंत्रियों को बता रहे हैं। लोगों को जगा रहे है। इसके साथ महिला क्रांतिसेना आंदोलन में लगी है। ये लोग दिल्ली में भी धरना दिये थे। दिल्ली में भी मंत्रियों से मिलकर अपनी बात रखे। विधानसभी तक बात पह़ुंचाई गई। पिछली सरकार के रहते भाषा को लेकर कोई काम नहीं हुआ।
नई सरकार आई तो छत्तीसगढ़ की संस्कृति दिखने लगी। तीज त्यौहार की रौनक ऐसी दिखाई देने लगी की इसकी खूशबू दूसरे राज्यों तक पहुंच गई। खान पान तो अब सबकी थाली में दिखने लगी है। पर भाषा ?
गणतंत्र दिवस के दिन मुख्यमंत्री भूपेष बघेल जी ने छत्तीसगढ़ी भाषा को प्राथमिक स्तर का माध्यम बनाने की घोषणा कर दिये। अगले शिक्षा सत्र से अब प्राथमिक स्तर पर छत्तीसगढ़ी भाषा में पढ़ाई होगी। माध्यम छत्तीसगढ़ी ही होगी। एक आदेश और निकाला गया 27 जनवरी को। आंगनबाड़ी केन्द्र में अब स्थानीय भाषा में शिक्षा दी जायेगी। मातृभाषा और बोली में शिक्षा देने से बच्चे का सम्पूर्ण होता है। बच्चों में समझने की शक्ति जल्दी विकसित होती है। वंनाचल क्षेत्र में अनुसूचित क्षेत्र में वहां की ही भाषा बोली से पढ़ाई कराई जयेगी। इसके पहल के लिये "महिला एवं बाल विकास" विभाग के सचिव सिद्धार्थ कोमल सिंह परदेशी जी ने सभी कलेक्टरों को पत्र लिख कर बच्चों को मातृभाषा में पढ़ाने के लिये कहा। आंगनबाड़ी के माध्यम से मानसिक ,शारीरिक और सामाजिक विकास की नींव डालने के लिये मातृभाषा में अनौपचारिक शिक्षा दी जायेगी। पठन सामाग्री का स्थानीय भाषा में शिक्षा देने की तैयारी शुरु हो गई है। स्कूली शिक्षा में छत्तीसगढ़ी, गोंडी, हल्बी, भतरी, सरगुजिहा,कोरवा, पांडव, कुडुक और कमारी में पढ़ाई होगी।
छत्तीसगढ़ राज्य को बने बीस साल हो गये हैं । इन बीस सालों में आज गाँव गाँव तक अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खुल गये हैं। जहां स्कूल नहीं खुले हैं वहां पर बड़े बड़े स्कूल की बसें आती हैं बच्चों को ले जाने के लिये। आज बहुत से घरों में बटलर हिंदी बोली जा रही है। छत्तीसगढ़ी को लोग पीछे छोड़ रहे थे जो छत्तीगढ़ राज्य बनने के बाद अच्छे से ओलने लगे हैं।आज की युवा पीढ़ी आज भी छत्तीसगढ़ी बोलने के कतराती है ऐसे समय में संविधान के अनुच्छेद की बात बता कर या फिर मातृभाषा में शिक्षा के नाम पर छत्तीसगढ़ी में पढ़ाई शुरु करने की प्रतिक्रिया क्या होगी।लोग शासन का आदेश समझ कर पढ़ने लगेंगे पर सरकारी स्कूलों में बच्चों की कितनी संख्या रहेगी? यह सब विचारणीय तो है। आज साहित्यकारों के छत्तीसगढ़ी साहित्य को पढ़ने वाले नहीं मिलते हैं। इन साहित्य को पढ़ने वाले तो मिलेगे। साथ ही पूरा पाठ्यक्रम भी छत्तीसगढ़ी में तैयार होगा। मानकीकरण का काम भी अधूरा है।एक समय था पचास साठ साल पहले जब घरों में हिंद बोलना सीखाते थे। यह इस लम्बे दौर में घरों का वातावरण पूरी तरह से हिंदीमय हो गया है। गाँव तक हिंदी पहुंच गई थी अब अंग्रेजी पहुंच रही है। अब लौट कर छत्तीसगढी की ओर आना कितना सही होगा। मुझे तो बचपन की याद आ रही है जब हमारे घर में छत्तीसगढ़ी बोलना मना था। हम राष्ट्र भाषा हिंदी की ओर बढ़ रहे थे।गांव जाते थे तब भी हमारे सार सब हिंदी बोलते थे।शादी के बाद मैने छत्तीसगढ़ी बोलना शुरु किया।इतनी अच्छी छत्तीसगढ़ी हो गई की उससे लेखन और संपादन भी करने लगी। बीस साल से हम छत्तीसगढ़ी से भाग रहे थे अब उस छत्तीसगढ़ी को हर जुबान पर लाना है। पढ़ना है, बोलना और लिखन भी है। संविधान की बात को बीस साल पहले लागू कर दिये रहते तो आज तीन पीढ़ी तैयार हो जाती।

बलात्कार

आज के अखबार में एक वेटनरी डाक्टर प्रियंका रेडी के साथ बलात्कार का समाचार पढ़ने के बाद निर्भया की याद आ गई। इतनी ही क्रूरता उसके साथ भी की गई थी। उसे दर्द सहने के लिये छोड़ दिया गया था। पर प्रियंका को और दर्द देने के लिये पहले गाड़ी में बांध कर तीस किलोमीटर घसीटा गया उसके बाद मिट्टी तेल डाल कर जला दिया गया। दोनों ही इतने कष्ट देने के बाद भी जीवित रहीं ये होती है नारी, जो एक बच्चे को नौ माह अपने कोख में रख कर मरने लायक पीड़ा सह कर एक बच्चे को जन्म देती है। एक पुरुष योनि से बाहर आता उसका सम्मान नहीं करता है उसकी धज्जी उड़ाता है। वह कई रुपों में हमारे आमने आती है माँ , बहन ,भाभी, नानी दादी और पत्नी। यह पत्नी ही है जिसे छूने का अधिकार समाज देता है। उसके लिये तो हर नारी पूज्यनीय होती है।
अविकसित समाज से एक विकसित समाज बना। जहां शरीर को ढक कर रखा जाता है। माँ बहन बेटी से प्यार भरा रिश्ता रहता है। आज भी जो कबीले विकास की दौर से बाहर हैं वहां भी ऐसा नहीं होता है। उनके कबीले की मर्यादा है। आधे कपड़े पहने सभी महिलायें घूमती हैं पर ऐसी गंदी नजर नहीं होती है। एक द्रौपति के लिये महाभारत हो गया। एक सीता के लिये लंका जल गई और पूरा परिवार मर गया। आज ऐसा कुछ नहीं हो रहा है। संविधान के नियम भी शिथिल हैं। किसी को भी फांसी नहीं मिल रही है। एक मोमबत्ती पकड़ कर सैकड़ो लोग शांति से संवेदना प्रगट कर रहे हैं। इससे क्या होगा?
मुझे अपनी पुरानी डायरी याद आई जिसमें मैं रायपुर की 1970 की घटना के बारे में लिखी हूं। उस समय मैं नवमीं में पढ़ रही थी। आचार्य तुलसी का प्रवचन चल रहा था। उन्होने माता सीता पर कुछ गंदी बात कह दी थी। उस समय पूरे रायपुर में दंगा हुआ। लूटपाट और बंद करवाया गया। हम लोग दानी स्कूल में थे और कर्फ्यू लग गया। लड़के करीब बारह बजे स्कूल बंद करवाने आई। प्राचार्य से बहुत सी बहस के बाद छुट्टी दे दी गई। जो लड़कियां रिक्शे से आती थी उनके लिये लड़कों ने रिक्शा तय किया और जो पैदल आये थे वे पैदल ही निकल गये। मेरा घर ईदगाहभाठा में विवेकानंद आश्रम के पीछे था तो मैं डर रही थी। मेरे साथ पंकज तिवारी की बेटी वीणा तिवारी थी। हम लोग सत्ती बाजार जहां उस समय गुंडे दादा लोग रहते थे अक्सर चाकूबाजी होते रहती थी उसे पार करके जाना था। ब्राम्हण पारा चौक पर हमेंशा लड़कों का झुंड रहता था। हम लोग करीब दस बारह.लोग निकले तो श्याम टॉकिज के चौक पर लड़के थे तो हम लोग घबरा गये और श्याम टॉकिज में चले गये। वहां के मैनेजर ने कहा कि आराम से सिनेमा देखो तीन बजे तक सब शांत हो जायेगा तब जाना। पैसा नहीं लेगें। हम लोग अंदर बैठ गये पर घबराहट इतनी थी कि सिनेमा का नाम आज तक याद नहीं आया। वहां से निकले तो फिर बाहर चौक में लड़के खड़े थे। वे लोग पूछे कि अभी तक कहां थे? हम लोग सिनेमा देख रहे थे बोले तो वे लोग नाराज होकर बोले तुम लोगों को घर पहुंचाना हमारी जिम्मेदारी है तो तुम लोग सीधे घर जाना। उसने एक हांका लगाया " लड़कियां जा रही है, ठीक से आगे भेजो" हम लोग सत्तीबाजार आ गये वहां भी लड़के ऐसा ही हांका लगाये। हम लोग कंकालीपारा आ गये वहां से ब्राम्हणपारा चौक आ गये। यहां से मैं अकेली हो गई थी और मेरा घर साइंस कालेज के रास्ते पर था। मैं चुप खड़ी थी तभी एक लड़का आकर कहां जाना है? पूछता है। मैं ईदगाहभाठा बोली तो चलो छोड़ कर आता हूं बोला और हिंदूस्पोर्टिंग मैदान तक छोड़ दिया। वहां से मैं अकेले घर पहुंची। माँ तो दरवाजे पर ही बैठी थी। सब बच्चे घर आ गये थे मैं ही नहीं पहुंची थी। माँ सोच रही थी कि किसी सहेली के घर पर रूक गई होगी। सब कुछ ठीक रहा दूसरे दिन के अखबार में लड़को के बारे में छपा था। स्कूल दो दिन बंद रहा। बाद में जब स्कूल गये तो हमारी प्राचार्य ने भी लड़को की तारीफ की। हम.लोग कालेज से भी पढ़ कर निकल गये। कई बार मांगो को लेकर छात्र नेता दंगा करते रहे पर किसी भी लड़की के साथ छेड़खानी नहीं हुई। यहां तक मैने देखा की इंदिराजी की हत्या के समय भी इतने दंगे हुये पर किसी लड़की या महिला के साद बदसलूकी नहीं हुई।
कल की घटना को लेकर दिल्ली की एक लड़की अनु दुबे संसद के बाहर एक गत्ता लेकर धरने पर बैठ गई। गत्ते पर लिखा था"अब डर डर कर जीना नहीं चाहती" कितनी पीड़ा थी उसके मन में। संवेदना से भरी अनु सायलेंसर से जले अपने हाथ से तुलना कर रही थी प्रियंका के जलने की घटना को। उसकी पीड़ा को आत्मसात कर रही थी। उसे महिला पुलिस थाने ले जाकर बहुत मारी। चप्पन जूते से भी मारी। एक नारी की संवेदना दूसरी नारी के लिये यह थी। बहुत दुख हुआ कि सात साल में निर्भया के दोषी को फांसी नहीं मिली। घटनायें लगातार हो रही है। संसद में भी लोग संवेदना प्रगट कर रहे है, सजा की मांग कर रहे हैं। यह काला दिन किसी डायरी में लिखा जारे ऐसा मुझे नहीं लगता पर दस्तावेजिकरण भी जरुरी है। डायरी ही ऐसी जगह है जहां हम तारीख के अनुसार घटनाओं को लिखते हैं। समाज में बदलाव आये इसके लिये क्या करें ?यह सोचना बहुत जरुर है। शिक्षा की कमी है या संस्कार की कमी है। विकास ने इसे निगल लिया या हम ही इसे भूल गये। आज ऐसा न हो कि सोनोग्राफी के सेंटर पर लिखा हो "पुरुष भ्रूण हत्या अपराध है। " एक माँ यह कहरही है की मेरे बेटे को फासी दे दो, दूसरी माँ कह रही है मेरे बेटे को भी जिंदा ला दो। एक औरत के मन में दहेज क प्रति इतनी घृणा हो जायेकी वह नारी भ्रूण को मार दे तो आज ऐसा समय आ गया है माँ और आप दोनों सोच रहे है कि हमारा बेटा भी कहीं बलात्कारी तो नहीं हो जायेगा? समाज को सतर्क होने की जरूरत है। आज बेटियां अर्थी को कंधा दे रही हैं, अग्नि दे रही है, पिंडदान कर रही हैं तो आज बेटों की क्या जरुरत है? दो माह से लेकर सत्तर साल तक की नारी क्रूरता की शिकार हो रही है। आज समाज परिवर्तन मांग रहा है। इन घटनाओं का भी दस्तावेजिकरण जरुरी है। यह डायरी ही है जिसने सन् 1970 की को भी याद दिला दी। आने वाले समय में इस क्रूरता को भी याद कर समाज अपने आप को सुधारने की कोशिश जरुर करेगा।

बारीश की मुसीबतें

बारीश तो मुसीबतें ही लेकर आती हैं। एक बार कुत्ते के चार बच्चे बारीश में भीग रहे थे। बार बार मुंह ऊपर करके रो रहे थे।
एक भी पेड़ नहीं जिसकी छांव में बैठ सकें।आजकल तो दरवाजे नहीं लोहे के गेट होते हैं।वह पिल्ले हर घर के दरवाजे पर जाकर कूं कूं करते और आसमान की तरफ देखते।मै तभी बाहर निकली। मेरे घर के आंगन में आ गये। दरवाजे के नीचे के छज्जा था वहां बैठ गये।पर ये क्या ? बारीश तेज हो गई और आ़गन में पानी भर गया। मुझे कुत्ते पसंद नहीं है। अब तो वे मुझे देखने लगे और मैं उनको।वे वरामदे में चढ़ने लगे तो मैने आने दिया।
अचानक मेरे मुंह से निकला" है ईश्वर इतना पानी गिरा रहे हो तो इन जानवरों के लिये जगह भी दो। ये तो बोल भी नहीं सकते हैं, कहां जायेंगे।" अचानक जोर से बिजली कड़की " तड़तड़ तड़तड़" चारो पिले आपस में चिपक कर रोने लगे। आज इस कठिन समय में चारो सा थे। इंसान होता तो पहले अपने लिये सोचता पर ये चारो का साथ छूट नहीं रहा था। शाम को पानी बंद हो गया।एक रोटी के चार टुकड़े करके दे दी। तीन घंटे मेरे वरामदे में रहे पर मुझे और रोटी बनाने की याद भी नहीं आई। पानी बंद होते ही वे भाग कर गेट के पास चले गये। मैने गेट खोल दिया। एक पिल्ला जाना नहीं चाह रहा था तो बाकी तीन भी अंदर आ गये।बहुत मुश्किल से ये लोग बाहर गये। एक जगह रूके लोग भी पानी बंद होते ही अपने रास्ते चले जाते हैं । जब तक खड़े रहेंगे तरह तरह की बातें करेंगे। ये कुत्ते तो उन इंसानों से बेहतर है जो साथ नहीं छोड़े। बहुत देर के बाद वे अलग अलग रास्ते गये पर उनके बीच दोस्ती जरुर हो गई।रह.रह कर मुझे देखते रहते हैं। सोचते होंगे की इंसानों के बीच में भी कोई एक ही इंसान होता है।सच है आज इंसान चांद पर जाकर भी अपने बगल वाले के दिल तक नहीं पहुंच पाया है।

मजदूर की मजबूरी

देश में कोरोना माहमारी के फैलाव को रोकने के लिये लॉकडाउन किया गया। जो जहां थे वहीं रह गये। 22 मार्च को 14 घंटे का कर्फ्यु लगा। उसके बाद 24 मार्च से 14 अप्रेल तक 21 दिन का लॉकडाउन लग गया। सब काम बंद हो गये । कारखाना बड़े बड़े मील ,होटल, मॉल, बस, सिनेमाघर यहां त रेल के पहिये भी थम गये। दैनिक वेतन वालों की परेशानी शुरु हो गई। जिनके पास पैसा था वे सामान या राशन भी नहीं खरीद सकते थे। उस समय बहुत सी समाज सेव संस्थायें सामने आकर काम करने लगे।सभी राज्यों में खाना बटने लगा। कोई भी भूखा न रहे।लोग अपने घरों से भी खाना बना कर कुछ लोगों को बांटने लगे। धर्म सम्प्रदाय कहीं भी बीच में नहीं था। मंदिर गुरुद्वारा चर्च सब कुछ बंद हो गया। ऐसे समय में डाक्टर और नर्स भगवान की तरह दिनरात काम करने लगे थे।इनको धन्यवाद देने के लिये सब अपने अपने घरों की बाल्किनी, छत और आँगन में घंटी बजाये। इस 21 अप्रेल के बाद फिर से लॉकडाउन फेस दो शुरु हो गया। अब मजदूरों की परेशानी शुरु हो गई। उनको इस फैलती बीमारी से अपना घर याद आने.लगा। पैसे तो थे पर होटल बंद है दुकान बंद है तो एक एक सामान के लिये तरसते नजर आये।अपने घर अपनी मिट्टी में लौटना चाहते.थे पर.रेल बस सब बंद था।
यह फेस दो 15 अप्रेल से 3 मई तक 19 दिन का था। अब ये लोग पे घर जाने की मांग करने लगे। तभी कोटा में पढ़ाई कर रहे बच्चों को उनके अभिभावकों की मांग पर ए सी बस से लाया गया। यह सब देख पढ़ कर मजदूओं की मांग बढ़ने लगी। सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया बस खाने के पैकेट बांटते रहे।कुछ लोग पुराने कपड़े बांटने.लगे यह बहुत ही शर्मनाक था। मजदूरों को यह बात अच्छी नहीं लगी। उनका कहना था पैसा हमारे पास है, हमें तो बस घर भेजा जाये।
तीसरा फेज 4 मई से 17 मई तक के लिये लग गया। अब मजदूरों पैदल ही अपने गाँव की ओर चलना शुरु कर दिया। 1000 किलोमीटर की यात्रा पर लोग चल पड़े। रास्ते मे कुछ लोगदुर्घटना में मर गये।एक बच्ची प्यास में दम तोड़ दी। किसी ने बच्चे को जन्म दिया। ये लोग रेल बस की मांग करते रहे पर सरकार ने कुछ नहीं किया। ट्रक में ,मेटाडोर में.भर कर ये लोग एक राज्य से दूसरे राज्य जाने लगे। कुछ ने तो ट्रक वाले को तीन हजार दिया और किसी ने तीस हजार दिया। कुछ लोग बहुत सक्षम है कुछ लोग गरीब हैं पर पैसा सबके पास है। कुछ लोग पुराने कपड़े दे रहे है वे लोग इस बात से बहुत दुखी है। वे चाहते हैं हमें कुछ मत दो पर घर पहुंचा दो। घर पहुंचने की पीड़ा है सब में। आज इतना पैसा कमा चुके हैं कि अभी आराम से खा सकते हैं।कुछ को जरूरत है पर सब संतुष्ट हैं।

सरकार ने भेदभाव किया, इन मजदूरों को गरीब भूखे नंगे समझ कर खुला छोड़ दिया पैदल आने के लिये। वहीं कोटा से बच्चों को लाने के लिये ए सी बस भेजी गई। रायपुर से गुजरते हुये जब मैं इन लोगों को देखी तो मन पीड़ा से भर गया। तेलीबांधा चौक से आगे जोरा की तरफ तेजी से जाते हुये रोज देख सकते हैं।सामान के नाम पर एक थैला रखे हैं बस। रेल बंद है सोच कर पटरी पर ही सो गये। माल गाड़ी ने उन्हें रौंद दिया। उनके पास रखी रोटी पटरी पर बिखरी हुई थी। जिस रोटी के लिये अपना गांव छोड़कर दूसरे राज्य गये किसे पता था कि खुशहाल जिंदगी पर एक बार फिर इस रोटी के ही लाले पड़ेंगे। काम नहीं है पैसा है पर रोटी नहीं है। "आज जन्मभूमि आ रहे हैं वह बुला नहीं रही है पर हमें उसका महत्व समझ में आ गया है। अब हम अपनी भूमि की ओर ही जायेंगे।" कभी कभी लगता है कि यह हमारा देश हैं जो राज्यों में बटा है और उनके बीच कोई प्यार और संवेदना नहीं है। रायपुर के टाटीबंध में सभी तरफ के मजदूर आ रहे हैं जहां पर सिक्ख समाज खाना कपड़ा चप्पल दे रही ह।लोग दो तीन से भूखे हैं और प्यार.से खा रहे हैं।दो बजे रात को करीब दो.सौ मजदूर वहां पहुंचे।सभी प्यासे थे।दो लड़के रात को एक टैंकर में पानी भर कर मोटर साइकिल से खिंचते हुये टाटीबंध तक लाये। ट्रेक्टर नहीं मिला था। सब पानी पीकर खुश हो गये।वह पानी सुबह तक चलता रहा। यह छत्तीसगढ़ है जहां पर प्यार संवेदना कूट कूट कर भरी है , साम्प्रदायिकता दूर दूर तक दिखाई नहीं देती है। अभी पांच जून को 179 मजदूर बंगलुरु से लये गये है। पहिली बार इन लोगों ने हवाई जहाज को करीब से देखा और उस पर चढ़े भी। यह पहल अच्छी है पर अभी तक अपने साधनों से 2.60 लाख मजदूर आ चुके हैं।अब इस समय का दस्तावेजीकरण जरुरी है। दस्तावेज के लिये डायरी से अच्छी जगह हो ही नहीं सकती जिसके पन्ने समय के साथ साथ पलटते हैं।
आज हमारे मजदूर जन्मभूमि के महत्व को समझ गये हैं।कोरोना की विदाई के साथ अपनी लालसा की विदाई कर देंगे। जय मातृभूमि।

संघर्ष में खोता जीवन

सुशांत सिंह राजपूत अपने संघर्ष पूर्ण जीवन से हार गया। ऐसा क्यों? उसने जो चाहा सब तो मिलते चला गया। नहीं मिली तो कुछ फिल्में और नहीं मिला तो आगे बढ़ने का रास्ता। यह अंधेरा तो कुछ समय के लिये ही होता है। क्या कभी ऐसा हुआ है की सूरज न निकला हो? मौत का कारण अवसाद और तनाव बताया जा रहा है। पांच छै महिने से ईलाज चल रहा था। हंसता हुआ बच्चा सुबह आराम से जूस पीकर लटक गया, चौतीस साल की उम्र में ऐसा करना बहुत ही विचारणीय घटना है।

सुशांत का जन्म 21 जनवरी 1986 को पटना में हुआ था। स्कूली शिक्षा पटना के सेंट केरेंस स्कूल में हुई थी। उसके बाद दिल्ली चले गये। दिल्ली के कुलाची हंसराज मॉडल स्कूल में स्कूली शिक्षा पूरी किये। मेकेनिकल इंजिनियर बनते बनते तीन साल में पढ़ाई छोड़कर डांस की तरफ चले गये। सुशांत बैक डांसर थे। वे कोरियोग्राफर श्यामक डावर के पास डांस सीखे। उनके छात्र थे। उसे देखकर बालाजी टेलिफिल्म्स वालों ने सुशांत को धारावाहिक " किस देश में है मेरा दिल " में काम करने के लिये ले लिया। उसके बाद जी टी वी में " पवित्र रिश्ता " में काम किया। धीरे धीरे काम बढ़ना शुरु हो गया। इसके बाद रियलिटी शो" जरा नच के दिखा - 2" और" झलक दिखला जा -4". में भी दिखे थे।

इसके बाद सुशांत फिल्म की तरफ कदम बढ़ाये।" काय पो चे " पहली फिल्म थी जिससे फिल्मी दुनिया में कदम रखे।इसमें शुद्ध देशी रोमांस था। उसके बाद केदारनाथ और छिछोरे में काम किये। धोनी फिल्म में सुशांत की अलग ही पहचान बनी। आखरी फिल्म " दिल बेचारा "24 जुलाई को डिजिटल प्लेटफार्म पर रिलिज होगी।

इतने कम उम्र में सुशांत को बहुत कुछ मिल गया था। जिस ऊंचाई पर पहुंचना था वहां पर पहुंच ही रहे थे। रातो रात स्टार तो बहुत कम लोग ही बन पाते हैं। बहुत बढ़िया डांसर था, खिलाड़ी था। मेहनती, टैलेंटेड, दिलेर और खिलाड़ी था। वे कोरियोग्राफर श्यामक डावर के शिष्य थे। सुशांत 2006 में कामन वेल्थ खेल में भी डांस कने का मौका मिल चुका था मशहूर डायरेक्टर अलन अमीन से सुशांत ने मार्शल आर्ट सीखा था।

हर इंसान के जीवन में परिस्थितियां एक सी नहीं रहती हैं। समय बदलता है ,जीवन में उतार चढ़ाव आता है। कुछ लोगों ने सुशांत को काम देने से मना कर दिया। वह मध्यमवर्गीय परिवार का था तो कुछ अभिनेत्रियां साथ में काम नहीं करना चहती थी। धीरे धीरे सुशांत को निराशा ने घेरना शुरु दिया। कुछ लोगों का कहना था की सुशांत छै माह से अवसाद और तनाव से गुजर रहा था। उसका इलाज चल रहा था।

सुशांत के पास बहुत पावर वाला टलिस्कोप था । उसे शनिग्रह से वलय को देखना बहुत अच्छा लगता था। उसे तारों की दुनियां बहुत पसंद थी। सुशांत ने चाँद पर जमीन खरीदी थी, ऐसा करने वाले वे पहले व्यक्ति थे। खुशियों की दुनिया में विचरण करने वाला व्यक्ति एकाएक जीवन से हार जाये ,समझ से बाहर है। कई कार ,बंगला और पैसा बस कुछ उसके पास था पर जीवन में कुछ ज्यादा पाने की लालसा ने उसे जमीन से दूर कर दिया।

एक किसान जब कर्ज और अकाल की मार को सह नहीं पाता है तो फांसी लगा लेता है। पति पत्नी के बीच के झगड़े में बच्चों को मार कर फांसी में लटक जाते हैं। पुलिस लोगों की सुरक्षा के लिये रहती है पर थोड़े से तनाव में कोई एक अपने को गोली मार लेता है। यदि
हम यह सब मरे वालों की बात न करें तो.बेहतर हैं। बहुत से अपने जीवन से हारे लोग भी जी रहे हैं। कल जो लोग बड़े थे वे आज छोटे हैं। फिल्म क्षेत्र में बहुत ही महत्वाकांक्षी लोग ही आत्महत्या किये हैं वरना बहुत से लोग सामान्य जीवन जी रहे हैं। एक बार अमिताभ बच्चन जी भी कर्ज में डूब गये थे पर उनको एक फिल्म मिलते ही सब तनाव समाप्त हो गया। सुशांत के पास टैलेंट के नाम पर क्या नहीं था? डांस, मार्शल आर्ट, थियेटर फिल्म, फिर तारों की दुनियां। एक पढ़ा लिखा बुद्धीमान लड़का माँ को याद करता रहा और शायद उसी मां से मिलने तारों के पास चला गया। वह भूल गया कि उसके पीछे शोहरत और लोगों का प्यार उसे याद करेगा।

यह घटना आज की युवा पीढ़ी के लिये एक सीख है। जीवन जीने के लिये होता है। जीवन में कठिनाइयां आते रहती है। हमें उससे लड़ना है। अपने लिये नये नये रास्ते खोजना है और आगे बढ़ना है। प्रकृति ने जीने के लिये बनाया है। यह यादें आज डायरी के इस पन्ने पर अंकित हो गई। जो हमेंशा याद दिलायगी कि कैसे एक होनहार कलाकार जो अभी बच्चा ही था ,बिना किसी सहारे के अपनी मेहनत से ऊंचाई को छूने ही वाला था कि लोग उसे गिराने में लग गये। नमन है ऐसे कलाकार को।