रविवार, 24 जनवरी 2016

ये दिन भी अपने थे - 17


मेरे चाचा जी की मृत्यु चार मार्च सन् 1975 में हो गई ।वे माना हाई स्कूल में प्राचार्य थे ,दानीराम वर्मा ।रात को उन्हें पाटन पंदर हमारे गांव ले गये ।दूसरे दिन मेरी प्रायोगिक परीक्षा थी ।बी एस सी प्रिवियस में थी ।मुन्ना दसवीं में था ।माँ काका साथ में गये ।मै और मुन्ना घर पर अकेले रह गये ।रात ग्यारह बजे हमने चाचा जी को देखा था ।

सारी रात दोनों भाई बहन सो नहीं पाये।चाचा जी का चेहरा दिखता रहा ।मुन्ना सुबह की बस से गांव चला गया ।चाचा का लड़का गुरुकुल में पढ़ता था वह नहीं आ पाया था । मुन्ना को बहुत प्यार करते थे और पनदेवा कहा करते थे ।मुन्ना ने अग्नि दी

दूहरे दिन प्रेक्टीकल में भी मुझे रसायन शास्त्र के हर बॉटल में चाचा जी दिख रहे थे ।मैं ले दे कर परीक्षा देकर घर आई । खाना खाकर अकेले बैठे रेडियो सुन रही थी ।मुझे याद आया कि काका ने भी इसी तरह परीक्षा दी थी ।

मेरी दादी तीर्थ करने गई थी ।ट्रेन में ही हैजा फैल गया ।वाल्टेयर के अस्पताल में मृत्यु हो गई ।लाश को सुरक्षित रखा गया । काका को तार से खबर दी गई ।काका को लाश को पहचानना पड़ा ।बताते थे कि बहुत सी लाशे देखे थे ।क्ई खराब हो रही थी ।बदबू आ रही थी ।दादी को पहचाने के बाद आर एस एस वालों ने अंतिम क्रिया करवाने की जिम्मेदारी ली थी,वे लोग इलाहाबाद में नदी के किनारे जलाने का इंतजाम किया ।

हैजा वालों को नदी में विसर्जन करना मना था ।जलाते तक पुलिस आ गई ।स्वयंसेवकों ने आधी जली लाश को नदी में जल्दी जल्दी डाल दिया ।सभी भाग निकले ।काका बिना नहाये नागपुर आ गये वहाँ आधी रात को नहाये । सुबह पेपर था ।पहले दिन कुछ खाये नहीं थे ।सुबह दूध पीकर परीक्षा देने गये ।

पेपर को देखकर पढ़ा हुआ सब भूल गये ।चक्कर आने लगा ।दो रात से सोये नहीं थे ।चपरासी पानी लेकर आया एक गिलास पानी पीये उसके बाद पूरा पेपर उत्तरपुस्तिका से ढक लिये ।एक एक लाईन सरकाते हुये प्रश्न पढ़ते गये और उत्तर लिखते गये ।एक प्रश्न बनने के बाद सब कुछ सामान्य लगने लगा ।

उसी दिन शाम की ट्रेन से रायपुर आ गये और रात को कुर्मी बोर्डिंग में सोकर सुबह गांव पहुँच गये ।जब इस घटना के बारे में काका सुनाते तो कहानी लगती थी परन्तु अपने ऊपर आने के बाद समझ में आया कि स्वयं के उपर तकलिफ आती है तभी दूसरे की तकलिफ समझ में आती है।

।किसी अपने के मरने की पीड़ा किसी अपने के जाने के बाद ही पता चलती है ।वह रात अपनी पीड़ा में गुजरी और दिन काका की पीड़ा को समझने में ।दोनों को आत्मसात करने के बाद अकेले रहने की ताकत मिली ।मै पूरे नौ दिन अकेले रही ।इस बीच मतदान भी था ।

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