रविवार, 24 जनवरी 2016

ये दिन भी अपने थे - 45


तीज त्यौहार को हरियाली तीज , तीज , और , तीजा के नाम से जाना जाता है ।श्रावण मास में और भादों मे भी मनाया जाता है ।पूजा तो शिव की होती है ,पति की लम्बी आयु के लिये रखा जाता है ।मनाने का तरीका सब जगह अलग है ।फुलेरा सभी जगहों पर रखा जाता है ।कहीं पर रेत के शिवलिंग बना कर पूजा की जाती है और उसे सुबह तालाब में विसर्जित कर देते है । कहीं पर मदिरों में पूजा की जाती है ।

छतीसगढ़ का तीजा विशेष होता है।लोग इसकी रौनक देखते है ।यहाँ पर बेटियां मायके जाती है और वहीं उपवास रहती है ।चतुर्थी को उपवास तोड़ने के बाद ही ससुराल वापस आती है ।यहाँ पर लड़कियां अपने बचपन से भी उपवास शुरु कर सकती है ।यह उपवास मरते तक रहते है । विधवा महिलाएं भी इसे रखती हैं ।सात जन्म तक या जन्म जन्मानतर तक साथ रहने के लिये इस उपवास को रखा जाता है ।

छत्तीसगढ़ में इस उपवास को बेटियां मायके में रहकर करती है छत्तीसगढ़ में आदि संस्कृति रही है ।शैव और शक्ति की पूजा होती है ।पार्वती ने यह उपवास मायके में रहकर किया था ।वह जंगल में रहकर पहले कंदमूल खाकर फिर बाद में निर्जला रह कर शिव अराधना करती रहीं।तीज की रात को शिवजी के दर्शन हुये और पार्वती से विवाह हुआ ।

यह आदि संस्कृति आज तक जिवित है ।यहाँ पर बेटियों को भाई या पिता ससुराल से लेकर आते है ।बेटियां तीन दिन रहकर इस पूजा विधी को सम्पन्न करती है फिर चली जाती है ।तीन दिन में उपवास के पहले दिन करु भात का दिन होता है ।रात को करेले की सब्जी और एक भाजी खाई जाती है ।अक्सर चेंच भाजी खाते है ।करेला पीत्त नाशक होता है ।भाजी पेट को साफ करता है ।इस दिन सारी बेटियां क्ई घरों मे खाने जाती है ।कुछ नहीं तो करेले की सब्जी ही आकर आती है ।घर में कोई न हो तो पुरुष ही रहते है तो बेटियां अपने हाथ से निकाल कर खा लेती है ।एक मेले का आभास होने लगता है ।

यह मेला सुबह से रहता है जब बैग लेकर बेटियां सुबह से शाम तक मायके जाने के लिये निकलते रहती हैं।रास्ते में बराबर भीड़ बनी रहती है ।चतुर्थी के दिन सुबह से फलाहार का सिलसिला चलता है ।बेटियां ननंद सब आप पड़ोस में खाने जाती है ।खाने में कढ़ही ( कढ़ी) रहता ही है ।पूजा के बाद पहले ककड़ी खाते हैं इससे गला तर हो जाता है ।उसके बाद केला सेब खाते है ।"तिखुर सिंघाड़े का कतरा " खाते है ।तिखुर सि़घाड़े के आटे को पका कर थाली में जमाते है फिर उसे बर्फी की तरह काटते है ।इसके बाद पूड़ी के साथ इसे खाते है ।अंत में कढ़ी भात खाते है ।बेटियां जब खाने आती है तो घर की बड़ी महिला उन्हें पैसे या चूड़ी या ब्लाऊज पीस या फिर साड़ी देती है ।बेटियां प्रणाम करती हैं और दूसरे घर की ओर बढ़ जाती है ।

पूरे दिन चहलपहल रहती है । बचपन की सहेलियों का मिलन होता है ।बेटियां एक बार अपने बालपन को याद करती है ।छत्तीसगढ़ में अस्सी नब्बे साल की महिला भी मायके जाती है ।भाई न हो तो भतिजे उसे ले जाते है और सम्मान के साथ एक नई साड़ी देकर बिदा करते हैं ।बहन भी अपने भतीजे को कुछ देती है ।पैसा पकड़ा कर अपने घर लोटती है ।

यह बचपन में मनाया गया तीज शहरों में लुप्त हो चुका है पर गांव में फल फूल रहा है ।बड़े बुजुर्गों कै इंतजार रहता है कि कब तीज आये तो बेटियां घर आयें ।बेटी को भी अपने मायके मे बिताए पल याद आते है और वह भी तीज के पहले मायके जाने के लिये छटपटा उठती है ।बेटी का यह सम्मान सिर्फ छत्तीसगढ़ में है ।

शहरीकरण ने इसे निगल लिया है ।शासन ने इसके लिये एक दिन का अवकाश भी नहीं रखा है जबकि यह यहां की आदि संस्कृति का त्यौहार है ।

अब लोग बासी खाना नहीं खाते है ।सुबह ताजा बनाने लगे है ।दूसरे प्रदेश में ठंठा खाने के लिये एक अलग से त्यौहार मनाते है पर छत्तीसगढ़ में तीज में ही बासी खाने का रिवाज था ।बासी याने पहले दिन का बना खाना ।कहीं कहीं पर आज भी ऐसा खाते है पर आधुनिकता के दौर में यह चलन अंतिम चरण में है ।

छत्तीसगढ़ के इस अनोखे त्यौहार को एक दिन की छुट्टी का इंतजार है ।निर्जला उपवास रहने वाली नारी स्वयं छुट्टी ले तो बच्चे और पति के लिये उसे काम करना ही पड़ता है ।यह संस्कृति का स्वरुप बना रहे इसके लिये शासन भी कुछ करे तो इसकी महक बनी रहेगी ।

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