रविवार, 1 मई 2016

कविता -गरभ झन कर

गरभ झन कर -
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हवा के रुख बदलथे
मौसम म परिवर्तन होथे ,
सुरुज कभू उत्तर होथे.
कभू दक्छिन होथे.,
नक्छत्र बदलथे
कभू रासि बदलथे ,
चँदैनी के दिसा बदलथे
चँदा घलो अपन अकार बदलथे ।
बदलत हावय जग सारा
दिन बदलथे तारीख बदलथे
अउ बदलथे बछर
एक बछर जाथे तब.दूसर बछर आथे ।एक जीवन जाथे
तब दूसर जीवन आथे
परिवर्तन ह अटल आय
अउ सब छन भंगुर ।
गरभ झन कर मनुख ।एक दिन सब छोड़ के जाबे
आज करले मौज मस्ती
काली अपन आप ल
समसान के राख म पाबे ।
गरभ झन कर ।
सुधा वर्मा ,2014

समीक्षा
वाह दीदी, जीवन के सत ल संदेस देवत कविता म सुग्घर ढाले हव। चाँद तारा सूरज के बिम्ब ल फलियारे बर थोकुन दिमागी कसरत घलव होये ल चालु होंगे।
नवा छंदमुक्त कविता एकांतिक (?) पाठ के मांग करथे इहि एखर असल आभा ये, घेरी बेरी पढ़े ले नई कविता अपन अरथ ल विस्तारित करथे।
(थोकन जादा गियान बघार डारेंव बड़े भाई मन छिमा कारिहव 😳)
संजीव तिवारी ।6.-4-2016

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