रविवार, 1 मई 2016

ये दिन भी अपने थे - 94

अपूर्व का एक और घर जहां वह स्कूल से आते समय रुकता था ,दीपक दिनेश का था ।ये जुड़वा भाई है और बिलकुल एक जैसे दिखते है ।आज भी एक जैसे दिखते है पर हम लोग उन्हे पहचान लेते है और बच्चे भी । बड़ा दीपक थोड़ा स्माइली है ।इसकी माँ अंजु मुझसे सोलह साल छोटी है ।एक छोटी बहन की तरह या बेटी की तरह है ।मारवाड़ी अग्रवाल है।सबसे मिल कर रहती है ।उसके घर दिनभर गरम गरम रोटियां बनती रहती है ।कपड़े की दुकान है ।संयुक्त परिवार है।जब जो आता है उसे गरम रोटी बना कर देती है ।हम लोग भी जाते हैं तो खाना खा लेते है ।

स्कूल के पास घर होने के कारण तेज बारीश होने पर या मेरी तबियत खराब हो तो वह अपूर्व को घर ले जाती थी ।अपने बच्चो के कपड़े पहना कर खाना खिला कर रखती थी ।कभी कभी फीस भी हम लोग एक दूसरे कि पटा देते थे बाद मे पैसा दे देते थे ।कभी अपूर्व अपने पापा के साथ चार पांच दोस्तों कि किताबें  ले आता था तो कभी दीपक के पापा अपूर्व की किताबें ले आते थे ।दीपक दिनेश को उसकी माँ पढ़ाती थी ।वह सांइस लेकर  मेट्रिक की थी ।बच्चों को आराम से रात को पढ़ाती थी ।उसके पापा रात को दस बजे आते थे ।आठ बजे तक बाकी लोगों का खाना हो जाता था ।बच्चे जब पढाई मे तंग करने लगे तब उसने ट्यूशन भेजा ।उसके बाद भी दीपक को पूरक आ जाता था कभी अंग्रेज़ी तो कभी गणित ।वह मुझसे कुछ पूछती फिर पढ़ाती थी ।एक बार दीपक पूरे साल अंग्रेज़ी मे फेल होते गया हम लोग उसे बोले कि बच्चा कमजोर है उसे पीछे की कक्षा मे डाल दो ।पर वह तैयार नही हुई ।

अंजु ने मुझसे कहा कि बच्चों को पढ़ा दो ।उस समय बच्चे चौथी में थे।बहुत कठिनाई से मै तैयार हुई ।उस समय मै प काम वाली वाली बाई की बेटी  को पढ़ा रही थी फिर उसके एक भाई और एक बहन भी आती थी ।उसके चाचा के दो बच्चे आते थे ।इन सब को मै फ्री मे पढ़ाती थी ।अब दीपक और दिनेश को भी पढ़ाने लगी ।उसके बाद बेटे के दो दोस्त और आने लगे ।दस बच्चो को पढ़ाना कठिन हो रहा था ।अब दो ग्रुप बना कर मै पढ़ाने लगी।अपूर्व भी बहुत खुश था कि उसके दोस्त भी आ रहे है।मेरे पास एक घंटे का हिसाब भी नही था ।बराबर दो घंटे देती थी ।सभी विषय के प्रश्न तैयार करके  अभ्यास कराती थी ।रविवार को सुबह बच्चे नास्ता करके आते थे ।पढ़ाई करने के साथ साथ बीच मे खेलते भी थे।हमारे घर पर ही खाना खाते थे ।शाम को तीन चार बजे घर जाते थे।

पढ़ाते समय मै देखी कि दीपक डी को उल्टा लिखता था और इ मिसिंग था ।जब भी कोई स्पेलिंग लिखता था जिसमें "इ "आता था तो उसमे "इ "नही लिखता था ।उसको इस दोनो वर्ण को सुधारने मे ,सिखाने मे एक माह लगा पर वह सीख लिया ।उसकी माँ का ध्यान इस पर नही गया था ।बाद मे जब मैने "तारें जमीं पर "देखा तो आश्चर्य हुआ कि इस तरह के एक बच्चे को मैं पढ़ाई थी और वह ठीक से लिखने लगा था । उस साल वह सभी विषय मे पास हो गया था ।अब सभी पांचवीं मे आ गये थे ।उस साल भी दीपावली के बाद बच्चे पढ़ने आ गये थे ।

सभी बच्चे अच्छे से पढ़ रहे थे ।इन बच्चों को मैने टी शर्ट दिया । अप्रेल मे परीक्षा थी और पांच अप्रेल को मेरा यूटरस रिमूव किया गया ।ये बच्चे फिर भी आयेऔर अपने मन से पढ़ते थे।जहां समझ मे न आये वह मै बता देती थी ।बच्चे अच्छे से परीक्षा दे दिये ।सभी पास हो गये ।इस बीच अंजु का जुड़ाव हम लोगों से ज्यादा हो गया था ।

मेरे पति की अचानक मौत जहां मुझे तोड़ दिया वही वह अ़जु मेरे साथ खड़ी रही ।पूरे डेढ़ माह तक रोज आती थी ।दोपहर का समय निकाल कर ।मेरे साथ दीदी थी ।पर सब एक साथ चले गये ।दीदी प्रोफेसर थी तो कालेज की परीक्षा शुरु हो गई थी ।अंजु की देवरानी का बच्चा हुआ था ।अब तो कभी कभी ही मुलाकात होती थी ।पर मुझे रात को बुला लेती थी ।रात को जाती थी तो खाना खा कर आती थी ।कभी रात को दीदी के घर चले जाती थी।

मेरे घर पर चाँवल की बोरी हो या तेल का पीपा दीपक के पापा कार से लाकर दे देते थे ।पैसा पेंशन आने के बाद देती थी ।वह रोज फोन करके हालचाल पूछते रहती थी ।बच्चे को बुखार हो तो देखने आती थी ।सबसे बड़ी बात  अंजू मुझे हमेंशा घुमाने ले जाती थी ।कई बार मै उसके साथ मंदिर गई ।रायपुर से बाहर भी वह अपनी कार से ले जाती थी ।एक बार नवरात्र मे मुझे टेक्सी भी करके पिथौरा के पास चंडी मां के मंदिर लेकर गई थी ।तब उसकी देवरानी और बच्चे  भी  साथ मे थे ।

चंडी मंदिर देखने के लिये करीब तीन सौ सीढ़िया चढ़ कर गये थे ।चंडी माँ का सिर ही दिखता है ।बड़ी बड़ी सी आँखे और बड़ा सा नथ पहनी हुई है ।एक चुनरी ओढ़ी हुई हैं ।करीब दस फीट ऊंची हैं ।उस काली माता का सिर घूमता है ।हर छै महिने के बाद उसका सिर घूम जाता है और दूसरे छै महिना मे अपनी पुरानी जगह पर आ जाता है ।उसको देखकर बहुत अच्छा लगा ।जब भी मै किसी जगह पर जाने की या देखने की ईच्छा व्यक्त करती  ,तो वह मुझे कुछ दिनों में लेकर ही जाती थी ।हम लोग एक जनवरी को नये साल मे पुरखौती मुक्तांगन गये ।वहां पर छत्तीसगढ़ की संस्कृति को मूर्तियों के माध्यम से बताया गया है।फलक भी बहुत खूबसूरती से बनाया गया है ।भित्ती चित्र भी बने है ।पूरे घेरे के बाहर की दीवार पर भित्ती चित्र बने हुये हैं ।अंदर मे लोहे के बड़ी बड़ी आदिवासियों की मूर्ति है ।तीरथगढ़ बना है ।चित्रकोट बना हुआ है ।एक गुफा बनी है ।

जगह जगह पर जमीन ऊपर नीचे है जो चढ़ाव और उतार पर चलने से पहाड़ का एहसास कराती है ।जगह जगह पर बैठने के लिये  छायादार जगह बनाई गई है ।इसके घेरे पर भी बस्तर आर्ट बने हुये है ।लोहे की आदीवासी  मूर्तियां बनी हूई है।यह सब देख कर मन बहुत ही अच्छा लगा ।एक जनवरी को गये थे ।

मै डोंगरगढ़ बहुत साल से नही गई थी । अचानक एक दिन अंजू सुबह दस बजे फोन की कि आज बारह बजे कार से डोंगरगढ़ जायेंगे ।मै पहले तो नहीं बोल दी फिर सोची कि अभी तो रोप वे लगा है तो दर्शन के लिये जा सकते है ।जब मैं आखरी बार गई थी तो नीचे बैठी थी सीढ़ी नही चढ़ पाई थी ।मै समय पर तैयार हो कर फोन कर दी ।बहुत आराम से गये ।वहाँ पर मंत्री आने वाले थे तो थोड़ी देर रुकना पड़ा फिर टिकट लिये चालिस रुपये मे एक ।उसके बाद लाइन लगा कर रोप तक पहुंचे ।छै लोगों को एक साथ लेकर गया ।ऊपर पहुंचने के पहले पहाड़ का बहुत सुंदर दृश्य दिखाई दे रहा था।मुझे तो हरिद्वार की मंसा देवी की पहाड़ी याद आने लगी थी ।वैसी ही खूबसूरती दिखाई दे रही थी,पर फैलाव कम था ।रोप से उतरने के बाद भी बहुत लम्बा चलना पड़ा और सीढ़ी भी चढ़नी पड़ी ।हम लोग पहुँचे तो शाम की आरती होने वाली थी।आरती के बाद हम लोग वापस आने लगे ।कुछ लम्बा चलने कोई बाद हम लोग रोप  के पास आये ।उस ऊंचाई से चारो तरफ की बिजली  के बल्ब बहुत ही सुंदर दिख रहे थे ।ऐसा लग रहा था जैसे चाँदनी बिखरी हुई है ।रोप में बैठ कर हम लोग नीचे आ गये ।उतरते समय भी ऐसा ही लग रहा था कि चाँदनी की ओर जा रहे हैं पर जमीन के करीब आते समय सच्चाई सामने थी कि ये तो बिजली के जलते हुये बल्ब हैं ।।

हम लोग  जल्दी से अपनी कार तक पहुंचे और उसमे बैठ कर वापस चल पड़े ।भिलाई नेहरु नगर चौक पर रबड़ी खाये ।और मौसम का मजा लेकर रायपुर पहुंच गये ।हम लोग फिल्म देखने भी गये ।"ओ माई गॉड " फिल्म साथ मे देखने गये थे ।कभी साथ मे मॉल चले जाते है ।पंडरी का बाजार हो या गोल बाजार हो मुझे जब जरुरत हुई वह लेकर गई ।

आज बच्चे बड़े हो गये हैं ।सब अलग अलग काम कर रहे हैं।पर आज भी हम लोग साथ हैं ।मैं जब भी बाहर जाती थी ।अपूर्व को कालेज के लिये टिफिन देती थी ।दो बार ऐसा हुआ ।आज भी मुझे बोलती है आप आराम से घूम कर आओ अपूर्व को मै खाना दे दूंगी पर अपूर्व अपना खाना स्वयं बना लेता है या होटल से लाकर खा लेता है ।यह साथ तेईस साल मे एक रिस्ते की तरह हो गया है ।हम लोग एक परिवार हो गये हैं ।यह सब अंजू के व्यवहार के कारण है ।वह सम्बंधो के बीच लेन देन और उधारी को नही आने देती है ।वह मदद नही लेती है पर मदद करने को तैयार रहती है ।अंजू मुझे अकेले हूँ यह सोचने ही नहीं देती है ।उसके घर कितनी भी परेशानी हो ,वह रायपुर से बाहर हो तब भी वह बराबर फोन करती है ।

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