रविवार, 1 मई 2016

ये दिन भी अपने थे -95

हम लोग रायपुर के चायपत्ती बंगले मे रहते थे ।पिता जी बी एड कालेज के हॉस्टल वार्डन थे ।
वहाँ पर होली के दिन सुबह सब विद्यार्थी काका को पाटे पर खड़ा करके पहले गुलाल लगा कर पैर छुते थे ।उसके बाद सभी एक एक बाल्टी रंग डालते थे।काका तो कांपने लगते थे ।उसके बाद सब लोग माँ के हाथ का बना सेव चिवड़ा ।गुझिया और गुलाब जामुन खाते थे ।तीन सौ लोगों के लिये सब कुछ बना कर माँ रखती थी ।ऐसी होली मै कभी नही देखी ।

ससुराल मे सास एक बड़े ड्रम में रंग घोल कर रखती थी ।अपने चारो बेटे और पति को आँगन मे खड़े करके मग से नहलाती थी।सभी  भांग खाते थे ।मेरी सास और ससुर सुबह चार बजे से उठ जाते थे ।सुबह से बड़े के लिये उड़द दाल मेरी सास सिलबट्टे पर पिसती थी ।एक किलो दाल का बड़ा बनता था ।हम लोग मै और मेरी जेठानी दोनों बड़े बनाने मे लग जाते थे ।पहले दिन आलू के गुलाब जामुन बना कर रख लेते थे ।

सब भाई को कभी कभी ही साथ मे देखते थे ।यह एक दिन ऐसा होता था जब चारो भाई सुबह साथ मे रहते थे ।सुबह बड़ा बनते जाये सब खाते जायें ।तीन मुसलमान लड़के भी होते थे ।एक मेरे पति के दोस्त थे ,"फिरोज" जिसे भंगू के नआम से पुकारते थे ।दूसरे मेरे देवर का दोस्त था "मजीत खांन। " ये लोग हमारे घर के सामने ही रहते थे ।सब बड़ा खाकर चलो चलो करके आँगन मे आ जाते थे। सबसे पहले मेरी सास मेरे ससुर को खड़ा करके गुलाल का टीका लगाकर पैर छुती थी फिर रंग से नहलाती थी ।हम लोग भी तभी गुलाल का टीका लगा कर पैर छुते थे ।उसके बाद चारो बेटो को गुलाल का टीका लगाती और वे लोग पैर छुते थे ।फिर सब को रंग से नहलाती थी और खूब मजे लेती थी ।उसके बाद बेटों के दोस्तो की पारी रहती थी ।ये सब लोग कब भांग खा लेते थे मुझे पता नही चलता था ।

रंग डालने के बाद सब अपने आप हंसते थे।मेरे जेठ तो खुश होने के बाद डांटना शुरु कर देते थे ।होली खेलने सब घर के बाहर चले जाते थे ।हम महिलाएं ही घर पर रहते थे ।मेरी ननंद के साथ उसकी सहेलियां आकर खेलती थी ।मेरी ससुराल की पहली होली थी ।तब मुझे पेट मे तकलिफ शुरु हो गई थी ।डाक्टर ने अल्सर की सम्भावना बताई थी ।मुझे भूख लगी तो भात खाने का सोची तब देखी कि मेरी जेठानी हंस ही रही है ।ननंद भी हंस रही है ।दोनों किसी शायरी पर तो गाने को लेकर गाते और हंसते थे ।मै तो चुप रही ,खाना निकाल कर खाली ।थोड़ी देर मे सिर भारी हो गया और सिनेमा के दृश्य की तरह पेट फूलने लगा ।मेरा पेट फट जायेगा ऐसा लग रहा था ।जब मै रोने लगी तब जेठानी ने बताया कि भात मे भांग है ।तेरे लिये डाले हैं ।

मेरी सास महिला मंडल की  अध्यक्ष थी ।उसके मंडल की महिलाएं और मोहल्ले कि महिलाएं करीब पचास लोग घर पर आ गये ।सब लोग बहुत रंग खेले ।पूरा ड्रम खाली हो गया तो टंकी के पानी मे रंग घोल कर खेले ।मुझे बहुत चिल्ला कर बुलाते रहे मै ऊपर रहती थी ,छत से देखती रही पर उतरी नहीं ।सब चले गये तब मेरी जेठानी मुझे लेकर एक होमियोपैथी डाक्टर थे उनके पास लेकर गई ।वे भी उसी समय  रंग खेलकर आये थे ।वे मुसलमान थे ,मस्जित के पास रहते थे ।यहां के याने राजातालाब के मुसलमान और हिन्दू मे त्यौहार के समय अंतर करना कठिन होता था ।सब प्यार के रंग मे रंगे रहते थे ।डाक्टर ने कहा कि इनको भांग नही देना था।तबियत और बिगड़ सकती थी ।तीन बज गये थे ।सब घर लौटने लगे ।सभी नहा कर सो गये।सुबह का खाना रात को हम तीन लोग खाये ।सास ,मै और मेरी ननंद।बाकी गाय ने खाया ।सब सुबह ही उठे ।ऐसी होली तो मै देखी नही थी ।गुलाब जामुन रात भर उठ उठ कर मेरे पति खाते रहे ,सुबह सात आठ बचे थे ।सास चिल्ला रही थी। जेठानी ने बताया कि रात भर सीढ़ी चढ़ने उतरने की आवाज आती रही है ।पर इनको याद नहीं था कि वे गुलाब जामुन खाये हैं ।हा हा हा वाह होली ।

जब हमारे घर पर अपूर्व पैदा हुआ तब एक बार  फिर होली की रौनक शुरु हुई ।कालोनी मे कम घर थे ।अवंति नगर बस रहा था ।तब रंग गुलाल और तरह तरह की टोपी पिचकारी लेकर आते थे ।हम लोग तीन बाल्टी रंग घोल कर रख लेते थे।कालोनी के बच्चे और अपूर्व के दूसरे कालोनी के बच्चे हमारे घर पर ही होली खेलते थे ।हम तीनों सुबह से दरवाजे पर बैठ जाते थे जो भी आता रंग डालता और चला जाता था ।चूड़ी रंग से मुझे बुखार आ जाता है इस कारण लोग रंग कम ही डालते थे ।गुलाल से ही काम चला लेते थे ।कालोनी बसते गई और हमारे घर की होली की धाक भी जमने लगी ।कोई न मिले तो गाय तो है ।बेचारी निरिह गाय ही रंग से नहाती थी ।

होली के ठीक पहले मेरे पति नही रहे ।बेटे के लिये रंग लाई गुलाल लाई पर जैसे ग्रहण लग गया ।बेटे ने रंग खेलना ही छोड़ दिया ।तीन साल तक रंग टोपी लाती रही ।अब दीदी के घर के नाती नातिन खेलने लायक हो गये थे ।उनकी बहु बहुत रंग खेलती है।उनके घर दो तीन बार गया ।फिर बंद कर दिया ।बेटा विवेक और कल्पना अपने बच्चों को लेकर हमारे घर रंग खेलने आने लगी ।पर जैसे रंग का साथ छूट ही रहा था ।पांच साल से मैं रंग को देखती हूँ और रंग मुझे ।अपूर्व तो टीका भी नही लगाता है ।पूरे समय टी वी ही देखते रहता है।मै अपने कान्हा के साथ रंग खेलकर खुश हो जाती हूँ ।बीते दिन लौटते नही सिर्फ कहावत ही नही है सच है ।इंतजार सबको रहता है कि वह दिन लौट कर आयेगा ।वह दिन लौट कर आता है पर उसका रुप बदला हुआ रहता है ,यादें ही रह जाती है ।हमारी होली का रंग भी बदल गया है।अब आस्था के रंग मे रंगा मेरा कान्हा मेरे साथ रंग खेलता है ,उसी रंग मे मै नहाती हूँ ।जो इस रंग मे रंग गया उसे किसी और रंग की जरूरत ही नही है ।तीन तरह के होली के रंग देखी ,काका को उनके विद्यार्थी रंगते थे ।ससुराल मे सास की होली तो पागलपन तक की होली थी ।मेरे घर की होली मे बच्चो की खुशी थी ।मेरी होली तो हमेशा देखने तक ही रही कभी कभी ही खेलती थी ।अब जब जीवन बेरंग हो तो उस रंग की कीमत समझ मे आती है।बेरंग मे कान्हा  रंग भर रहा है।

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