गुरुवार, 12 मई 2016

कविता - आँख मिचौली




कहाँ हो तुम ?
कैसी हो तुम ?
आ भी जाओ ,
कहाँ हो जाती हो गुम?
वाष्प तुम्हे बुला रही हूँ ।
आओ कुछ छण साथ हो लें
तप तप कर बेचैन हूँ
अपनी ही टकराहट से
अपने को ही जला रही हूँ ।
कहाँ गई वह छप्पर ?
सुखरु तुमने खपरे बनाना
क्यों बंद कर दिया ?
मैं कहाँ जाऊं ?
चारो तरफ सीमेंट के
जंगल ही जंगल
किसे अपना घर बनाऊ ?
छप्पर पर बैठा करती थी
खपरों के रंध्रो से
कमरों मे झांका करती थी
दो छण का विश्राम
लिया करती थी ।
लाल मटके के पानी की
ठंडकता को सहसूश करती थी ।
काली मरकी के बासी को
झांका करती थी ।
चुन्नु मुन्नु के साथ
छुपा छुपी खेला करती थी ।
रंध्रो से जब कमरे में जाती तो
मुझे देख अपने हथेलियों से
छुना चाहते थे
बार बार मुझे पकड़ा करते थे ।
मै अटखेलियां करती और
वापस लौट आती थी ।
खप्परों पर विश्राम कर
चुन्नु मुन्नु के संग खेल
मटकों को छूकर
बासी को छांक कर
मै जब वापस लौटती
तो मेरी गरमी शांत हो जाती ।
आज सुखरु खो गया
चुन्नु मुन्नु रहने चले गये
पक्के मकानों में।
सीमेंट के छत पर
सर फोड़ती हूँ
बार बार टकरा कर
अपने आप को कोसती हूँ ।
तप तप कर जल रही हूँ ।
आओ वाष्प एक बार
मेरे साथ  खेल लो
इस आँख मिचौली में
तुम ही रहती हो मेरे साथ
वाष्प की बूंद इठलाती बोली
नहीं धूप तुम और तपो
जितनी सह सकती हो सहो
फिर आती हूँ मैं
खूब खेलेंगे आँख मिचौली
छुपा छुपी
देखना एक दिन तुम्हे मै
आकाश में  बंद कर दूंगी
फिर मै ही रहुंगी ।
आज तुम हो ,कल मैं
यही आँख मिचौली खेलेंगे
आँख मिचौली ।
सुधा वर्मा ,  9-4-2016


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