देश में कोरोना माहमारी के फैलाव को रोकने के लिये लॉकडाउन किया गया। जो जहां थे वहीं रह गये। 22 मार्च को 14 घंटे का कर्फ्यु लगा। उसके बाद 24 मार्च से 14 अप्रेल तक 21 दिन का लॉकडाउन लग गया। सब काम बंद हो गये । कारखाना बड़े बड़े मील ,होटल, मॉल, बस, सिनेमाघर यहां त रेल के पहिये भी थम गये। दैनिक वेतन वालों की परेशानी शुरु हो गई। जिनके पास पैसा था वे सामान या राशन भी नहीं खरीद सकते थे। उस समय बहुत सी समाज सेव संस्थायें सामने आकर काम करने लगे।सभी राज्यों में खाना बटने लगा। कोई भी भूखा न रहे।लोग अपने घरों से भी खाना बना कर कुछ लोगों को बांटने लगे। धर्म सम्प्रदाय कहीं भी बीच में नहीं था। मंदिर गुरुद्वारा चर्च सब कुछ बंद हो गया। ऐसे समय में डाक्टर और नर्स भगवान की तरह दिनरात काम करने लगे थे।इनको धन्यवाद देने के लिये सब अपने अपने घरों की बाल्किनी, छत और आँगन में घंटी बजाये। इस 21 अप्रेल के बाद फिर से लॉकडाउन फेस दो शुरु हो गया। अब मजदूरों की परेशानी शुरु हो गई। उनको इस फैलती बीमारी से अपना घर याद आने.लगा। पैसे तो थे पर होटल बंद है दुकान बंद है तो एक एक सामान के लिये तरसते नजर आये।अपने घर अपनी मिट्टी में लौटना चाहते.थे पर.रेल बस सब बंद था।
यह फेस दो 15 अप्रेल से 3 मई तक 19 दिन का था। अब ये लोग पे घर जाने की मांग करने लगे। तभी कोटा में पढ़ाई कर रहे बच्चों को उनके अभिभावकों की मांग पर ए सी बस से लाया गया। यह सब देख पढ़ कर मजदूओं की मांग बढ़ने लगी। सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया बस खाने के पैकेट बांटते रहे।कुछ लोग पुराने कपड़े बांटने.लगे यह बहुत ही शर्मनाक था। मजदूरों को यह बात अच्छी नहीं लगी। उनका कहना था पैसा हमारे पास है, हमें तो बस घर भेजा जाये।
तीसरा फेज 4 मई से 17 मई तक के लिये लग गया। अब मजदूरों पैदल ही अपने गाँव की ओर चलना शुरु कर दिया। 1000 किलोमीटर की यात्रा पर लोग चल पड़े। रास्ते मे कुछ लोगदुर्घटना में मर गये।एक बच्ची प्यास में दम तोड़ दी। किसी ने बच्चे को जन्म दिया। ये लोग रेल बस की मांग करते रहे पर सरकार ने कुछ नहीं किया। ट्रक में ,मेटाडोर में.भर कर ये लोग एक राज्य से दूसरे राज्य जाने लगे। कुछ ने तो ट्रक वाले को तीन हजार दिया और किसी ने तीस हजार दिया। कुछ लोग बहुत सक्षम है कुछ लोग गरीब हैं पर पैसा सबके पास है। कुछ लोग पुराने कपड़े दे रहे है वे लोग इस बात से बहुत दुखी है। वे चाहते हैं हमें कुछ मत दो पर घर पहुंचा दो। घर पहुंचने की पीड़ा है सब में। आज इतना पैसा कमा चुके हैं कि अभी आराम से खा सकते हैं।कुछ को जरूरत है पर सब संतुष्ट हैं।
सरकार ने भेदभाव किया, इन मजदूरों को गरीब भूखे नंगे समझ कर खुला छोड़ दिया पैदल आने के लिये। वहीं कोटा से बच्चों को लाने के लिये ए सी बस भेजी गई। रायपुर से गुजरते हुये जब मैं इन लोगों को देखी तो मन पीड़ा से भर गया। तेलीबांधा चौक से आगे जोरा की तरफ तेजी से जाते हुये रोज देख सकते हैं।सामान के नाम पर एक थैला रखे हैं बस। रेल बंद है सोच कर पटरी पर ही सो गये। माल गाड़ी ने उन्हें रौंद दिया। उनके पास रखी रोटी पटरी पर बिखरी हुई थी। जिस रोटी के लिये अपना गांव छोड़कर दूसरे राज्य गये किसे पता था कि खुशहाल जिंदगी पर एक बार फिर इस रोटी के ही लाले पड़ेंगे। काम नहीं है पैसा है पर रोटी नहीं है। "आज जन्मभूमि आ रहे हैं वह बुला नहीं रही है पर हमें उसका महत्व समझ में आ गया है। अब हम अपनी भूमि की ओर ही जायेंगे।" कभी कभी लगता है कि यह हमारा देश हैं जो राज्यों में बटा है और उनके बीच कोई प्यार और संवेदना नहीं है। रायपुर के टाटीबंध में सभी तरफ के मजदूर आ रहे हैं जहां पर सिक्ख समाज खाना कपड़ा चप्पल दे रही ह।लोग दो तीन से भूखे हैं और प्यार.से खा रहे हैं।दो बजे रात को करीब दो.सौ मजदूर वहां पहुंचे।सभी प्यासे थे।दो लड़के रात को एक टैंकर में पानी भर कर मोटर साइकिल से खिंचते हुये टाटीबंध तक लाये। ट्रेक्टर नहीं मिला था। सब पानी पीकर खुश हो गये।वह पानी सुबह तक चलता रहा। यह छत्तीसगढ़ है जहां पर प्यार संवेदना कूट कूट कर भरी है , साम्प्रदायिकता दूर दूर तक दिखाई नहीं देती है। अभी पांच जून को 179 मजदूर बंगलुरु से लये गये है। पहिली बार इन लोगों ने हवाई जहाज को करीब से देखा और उस पर चढ़े भी। यह पहल अच्छी है पर अभी तक अपने साधनों से 2.60 लाख मजदूर आ चुके हैं।अब इस समय का दस्तावेजीकरण जरुरी है। दस्तावेज के लिये डायरी से अच्छी जगह हो ही नहीं सकती जिसके पन्ने समय के साथ साथ पलटते हैं।
आज हमारे मजदूर जन्मभूमि के महत्व को समझ गये हैं।कोरोना की विदाई के साथ अपनी लालसा की विदाई कर देंगे। जय मातृभूमि।
यह फेस दो 15 अप्रेल से 3 मई तक 19 दिन का था। अब ये लोग पे घर जाने की मांग करने लगे। तभी कोटा में पढ़ाई कर रहे बच्चों को उनके अभिभावकों की मांग पर ए सी बस से लाया गया। यह सब देख पढ़ कर मजदूओं की मांग बढ़ने लगी। सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया बस खाने के पैकेट बांटते रहे।कुछ लोग पुराने कपड़े बांटने.लगे यह बहुत ही शर्मनाक था। मजदूरों को यह बात अच्छी नहीं लगी। उनका कहना था पैसा हमारे पास है, हमें तो बस घर भेजा जाये।
तीसरा फेज 4 मई से 17 मई तक के लिये लग गया। अब मजदूरों पैदल ही अपने गाँव की ओर चलना शुरु कर दिया। 1000 किलोमीटर की यात्रा पर लोग चल पड़े। रास्ते मे कुछ लोगदुर्घटना में मर गये।एक बच्ची प्यास में दम तोड़ दी। किसी ने बच्चे को जन्म दिया। ये लोग रेल बस की मांग करते रहे पर सरकार ने कुछ नहीं किया। ट्रक में ,मेटाडोर में.भर कर ये लोग एक राज्य से दूसरे राज्य जाने लगे। कुछ ने तो ट्रक वाले को तीन हजार दिया और किसी ने तीस हजार दिया। कुछ लोग बहुत सक्षम है कुछ लोग गरीब हैं पर पैसा सबके पास है। कुछ लोग पुराने कपड़े दे रहे है वे लोग इस बात से बहुत दुखी है। वे चाहते हैं हमें कुछ मत दो पर घर पहुंचा दो। घर पहुंचने की पीड़ा है सब में। आज इतना पैसा कमा चुके हैं कि अभी आराम से खा सकते हैं।कुछ को जरूरत है पर सब संतुष्ट हैं।
सरकार ने भेदभाव किया, इन मजदूरों को गरीब भूखे नंगे समझ कर खुला छोड़ दिया पैदल आने के लिये। वहीं कोटा से बच्चों को लाने के लिये ए सी बस भेजी गई। रायपुर से गुजरते हुये जब मैं इन लोगों को देखी तो मन पीड़ा से भर गया। तेलीबांधा चौक से आगे जोरा की तरफ तेजी से जाते हुये रोज देख सकते हैं।सामान के नाम पर एक थैला रखे हैं बस। रेल बंद है सोच कर पटरी पर ही सो गये। माल गाड़ी ने उन्हें रौंद दिया। उनके पास रखी रोटी पटरी पर बिखरी हुई थी। जिस रोटी के लिये अपना गांव छोड़कर दूसरे राज्य गये किसे पता था कि खुशहाल जिंदगी पर एक बार फिर इस रोटी के ही लाले पड़ेंगे। काम नहीं है पैसा है पर रोटी नहीं है। "आज जन्मभूमि आ रहे हैं वह बुला नहीं रही है पर हमें उसका महत्व समझ में आ गया है। अब हम अपनी भूमि की ओर ही जायेंगे।" कभी कभी लगता है कि यह हमारा देश हैं जो राज्यों में बटा है और उनके बीच कोई प्यार और संवेदना नहीं है। रायपुर के टाटीबंध में सभी तरफ के मजदूर आ रहे हैं जहां पर सिक्ख समाज खाना कपड़ा चप्पल दे रही ह।लोग दो तीन से भूखे हैं और प्यार.से खा रहे हैं।दो बजे रात को करीब दो.सौ मजदूर वहां पहुंचे।सभी प्यासे थे।दो लड़के रात को एक टैंकर में पानी भर कर मोटर साइकिल से खिंचते हुये टाटीबंध तक लाये। ट्रेक्टर नहीं मिला था। सब पानी पीकर खुश हो गये।वह पानी सुबह तक चलता रहा। यह छत्तीसगढ़ है जहां पर प्यार संवेदना कूट कूट कर भरी है , साम्प्रदायिकता दूर दूर तक दिखाई नहीं देती है। अभी पांच जून को 179 मजदूर बंगलुरु से लये गये है। पहिली बार इन लोगों ने हवाई जहाज को करीब से देखा और उस पर चढ़े भी। यह पहल अच्छी है पर अभी तक अपने साधनों से 2.60 लाख मजदूर आ चुके हैं।अब इस समय का दस्तावेजीकरण जरुरी है। दस्तावेज के लिये डायरी से अच्छी जगह हो ही नहीं सकती जिसके पन्ने समय के साथ साथ पलटते हैं।
आज हमारे मजदूर जन्मभूमि के महत्व को समझ गये हैं।कोरोना की विदाई के साथ अपनी लालसा की विदाई कर देंगे। जय मातृभूमि।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें