आज दादा मुनी का जन्म दिन है। जब किशोर कुमार एक साल के थे तब अशोक कुमार.पढ़ाई करने विदेश चले गये। किशोर कुमार चार साल के थे तब वे पढ़ कर वापस आये। अशोक कुमार आये तो उसकी मां ने उन्हें बहुत ही प्यार से खीर खाने के लिये दिया। किशोर कुमार ने पूछा की "ये कौन है?" माँ ने कहा कि ये तुम्हारे बड़े भाई हैं। किशोर कुमार उनके पैरों से लिपट कर " दाना मुनी" कहा तब से अशोक कुमार सबके दादा मुनी बन गये। दादा मुनी ने ही अपने भाई को क्ला के क्षेत्र में आगे बढ़ाया।
मै भी उही किशोर कुमार की जगह अपने आप को देखती हूं जब मेरे से ग्यारह बारह साल बड़ी बहन मुझे ऊंगली पकड़ कर चलना सिखाई थी।किस्से कहानियों में माँ के साथ खोई रहती थी तो दीदी मुझे उससे आगे ले जाती थी। परी लोक में ,कल्पना की दुनिया में विचरण कराती थी। छोटी छोटी कहानियां तो मैं सुनाने.लगी पर कविता तो मेरे लिये बहुत ही कठिन था। दीदी ने मुझे आसमान दिखा कर बताया कि देखो और उस पर लिखो।.आसमान का नीला ,पीला , भूरा ,कपसिले तो कभी दूधिया बादल अपनी आकृतियों से मुझे आकर्षित करने लगे फिर क्या था बनने लगी कविता।आसमान में उड़ते पक्षी तो कभी पैड़ो पर बैठती तितलियि यही मेरे कविता के विषय रहे। ऊंगली पकड़ कर चलना सीखी थी तो साहित्य की दुनिया में भी मैने दीदी की ऊ़गली पकड़ कर ही आ गई। फिर क्या था डरते सहमत अपनी कल्पना लोक की परियों को मैने शब्द दिये।प्रकृति को मैने अपने में आत्मसात कर लिया और लिखने लगी संवेदना से भरी कवितायें। मैं पत्ती में हूं, मैं फूल में हूं , मैं ही तो वृक्ष में हूं। नदी तालाब सब में मैं हूं। मुझे दिखने लगी और महसूस होने.लगी उनकी खुशी ,उनका दर्द, उनकी ईच्छायें।
आज हम दोनों बहने लिखती हैं कला और साहित्य में सबकी अपनी जगह है। दाना मुनी अपनी जगह थे तो उसी प्रखार दीदी भी अपनी जगह है।किशोर कुमार अपनी जगह थे तो उसी प्रकार मैं अपनी जगह पर हूं।किसी की किसी से कोई तुलना ही नहीं है।सभी का क्षेत्र एक होते हुरे भी अलग अलग है।सभी का व्यक्तित्व अलग अलग होता है वैसे ही हमारा भी व्यक्तित्व अलग अलग है। किही ने कहा कि आप दोनों बहने लता मंगेशकर.और आशा भोसले की तरह हैं। नहीं हम.लोग लता आशा हर्गिज नहीं हैं। उनमें तुलना होती है।वे स्वयं भी किसी के आगे बढ़ने पर परेशान हो जाती हैं पर दादा मुनी और किशोर कुमार के बीच ऐसा बिल्कुल नहीं था।
मेरी दीदी डा. सत्यभामा आड़िल ,शिक्षाविद हैं, लेखिका है। उन्होने पैतिस चालिस लोगों को शोध करवाया है। उन्होने समाज के उत्थान के लिये बहुत काम किया है। मै भी व्याख्याता रही ह़ूँ। मुझे आर्ट में रुचि है बहुत सी कलायें जानती हें। मैं भी लेखन करती हूं ,बहुत सी पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं पर हम दोनों बहन बिल्कुल अलग है।
मैं शायद अपनी दीदी के लेखकीय क्षेत्र में चली गाई हूं।ऊन्होने हाथ पकड़ कर चलना सीखाया था न तो मैं आज तक ऊ़गली पकड़ कर ही चल रही हूं लग रहा है। किसी को भी हमारी तुलना नहीं करनी चाहिये।
आज दादा मुनी के जन्मदिन पर उनको बहुत बहुत बधाई। उन्होने अपे भाइयों को अपने बच्चों की तरह प्यार किया करते थे। कभी अभिनय में उनके साथ प्रतियोगी नहीं बने। आज दीदी भी दिशा देती है मेरी प्रतियोगी नहीं है। फिर हमारी तुलना कैसी?
मै भी उही किशोर कुमार की जगह अपने आप को देखती हूं जब मेरे से ग्यारह बारह साल बड़ी बहन मुझे ऊंगली पकड़ कर चलना सिखाई थी।किस्से कहानियों में माँ के साथ खोई रहती थी तो दीदी मुझे उससे आगे ले जाती थी। परी लोक में ,कल्पना की दुनिया में विचरण कराती थी। छोटी छोटी कहानियां तो मैं सुनाने.लगी पर कविता तो मेरे लिये बहुत ही कठिन था। दीदी ने मुझे आसमान दिखा कर बताया कि देखो और उस पर लिखो।.आसमान का नीला ,पीला , भूरा ,कपसिले तो कभी दूधिया बादल अपनी आकृतियों से मुझे आकर्षित करने लगे फिर क्या था बनने लगी कविता।आसमान में उड़ते पक्षी तो कभी पैड़ो पर बैठती तितलियि यही मेरे कविता के विषय रहे। ऊंगली पकड़ कर चलना सीखी थी तो साहित्य की दुनिया में भी मैने दीदी की ऊ़गली पकड़ कर ही आ गई। फिर क्या था डरते सहमत अपनी कल्पना लोक की परियों को मैने शब्द दिये।प्रकृति को मैने अपने में आत्मसात कर लिया और लिखने लगी संवेदना से भरी कवितायें। मैं पत्ती में हूं, मैं फूल में हूं , मैं ही तो वृक्ष में हूं। नदी तालाब सब में मैं हूं। मुझे दिखने लगी और महसूस होने.लगी उनकी खुशी ,उनका दर्द, उनकी ईच्छायें।
आज हम दोनों बहने लिखती हैं कला और साहित्य में सबकी अपनी जगह है। दाना मुनी अपनी जगह थे तो उसी प्रखार दीदी भी अपनी जगह है।किशोर कुमार अपनी जगह थे तो उसी प्रकार मैं अपनी जगह पर हूं।किसी की किसी से कोई तुलना ही नहीं है।सभी का क्षेत्र एक होते हुरे भी अलग अलग है।सभी का व्यक्तित्व अलग अलग होता है वैसे ही हमारा भी व्यक्तित्व अलग अलग है। किही ने कहा कि आप दोनों बहने लता मंगेशकर.और आशा भोसले की तरह हैं। नहीं हम.लोग लता आशा हर्गिज नहीं हैं। उनमें तुलना होती है।वे स्वयं भी किसी के आगे बढ़ने पर परेशान हो जाती हैं पर दादा मुनी और किशोर कुमार के बीच ऐसा बिल्कुल नहीं था।
मेरी दीदी डा. सत्यभामा आड़िल ,शिक्षाविद हैं, लेखिका है। उन्होने पैतिस चालिस लोगों को शोध करवाया है। उन्होने समाज के उत्थान के लिये बहुत काम किया है। मै भी व्याख्याता रही ह़ूँ। मुझे आर्ट में रुचि है बहुत सी कलायें जानती हें। मैं भी लेखन करती हूं ,बहुत सी पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं पर हम दोनों बहन बिल्कुल अलग है।
मैं शायद अपनी दीदी के लेखकीय क्षेत्र में चली गाई हूं।ऊन्होने हाथ पकड़ कर चलना सीखाया था न तो मैं आज तक ऊ़गली पकड़ कर ही चल रही हूं लग रहा है। किसी को भी हमारी तुलना नहीं करनी चाहिये।
आज दादा मुनी के जन्मदिन पर उनको बहुत बहुत बधाई। उन्होने अपे भाइयों को अपने बच्चों की तरह प्यार किया करते थे। कभी अभिनय में उनके साथ प्रतियोगी नहीं बने। आज दीदी भी दिशा देती है मेरी प्रतियोगी नहीं है। फिर हमारी तुलना कैसी?
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